माटी की मूरत
अपनी सीरत से ही सदा याद
किया जाता है कोई
सूरत से नही
यह तो बस मिट्टी की
मूरत धूसरित होता ही है सही ।
इसे जितना सजाने संवारने में
हम सब परेशान सदा
रहते है
नदी के किनारे खड़े पता
नही क्यों प्यास से तड़पते है।
इस क्षिति जल पावक और
गगन व पवन से
बने तन
पर आजीवन हम
व्यर्थ लुटाते रहे है सब धन।
जानते, यह एक साधन नही
बस एक साध्य है
निरापद
पावन संस्कृति का एक
चिरप्रतीक्षित वही अध्याय है।
शास्वत सत्य यही की आखिर
एक दिन यह साथ
छोड़ जाएगा
सब यहाँ का धरा अंत
में यही निरापद रह जायेगा।
मिट्टी की यह मूरत बस जानो
एक नाशवान साधन है
निर्मेष
साध्य तो परम् पिता
परमात्मा का वह धाम है शेष।
निर्मेष