मां के आंचल को ओढ़ना
सीखा तुम्हीं से दूसरों के सुखों को सहेजना
अपने हिस्से में केवल दुःख दर्दों को बांटना
तुम्हें सहज था मेरी हर जरूरत को जानना
असहज हो गई जब था अपने लिए मांगना
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न संभव मां ममता और सागर को बांधना
जैसे फूलों व सुगन्ध को अलग से छांटना
खुली किताब तुम पर मुश्किल था वाचना
रहा अन्दर से बहुत प्यार बाहर से डांटना
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न तृप्त होते जब से बन्द मां का परोसना
न रही मां तो बन्द हुआ मघा का बरसना
शुरू हो गया रास्तों में जूझना व भटकना
अधूरा हुआ जब से पड़ा मां को छोड़ना
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न नसीब अब मां के आंचल को ओढ़ना
वदन से छूकर निकली खुशबू को ढूंढना
कहां गया मां का धूप में जाने से रोकना
मिठासों से भरा था हर बातों को टोकना
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था मुझको रहा भाता हठों के पार जाना
सुहाता था पैरों को पटकना मचल जाना
जमीं से उठाना फिर सीने से लगा जाना
मुझे माफ़ करना शरारतों को भूल जाना
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तुम दिखती ऐसे जैसे गुस्सें से रुठ जाना
मेरी थी मुश्किलें तुम को तो समझ पाना
था कुछ पलों के बाद तुम्हारा पास आना
जिद अच्छी होती नहीं मुझको ये बताना
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मैं तो कहीं पे रहता न था तुमको भूलना
घुटनों के बल चलना और तुमको ढ़ूढ़ना
मेरी तोतली बोली में तो मां को पुकारना
पागल होती बार-बार मस्तक को चूमना
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कनखियों से देखना व पूरे घर में डोलना
हाथों की थपकियां व सरगम सा बोलना
बचपन की यादों को अब तक न भूलना
थी सो गई चिर निद्रा से मां का न लौटना
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रामचन्द्र दीक्षित’अशोक’