मां की व्यथा
हाय, उस मां की व्यथा को कौन समझे कौन जाने!
दूध उर का जिन्हें पिलाया, आज है वो आंखे ताने
जिसके लिए थी भूखी रही
मंदिरों में प्रसाद चढ़ाया ,
उसके जन्म पर हर्षित होकर
भोग लगाया,मोद मनाया,
प्राण जिस पर वारने को
हो गई उतावली थी
आज खड़े वो सामने है, करयुग्मों में लाठी थामे
हाय, उस मां की व्यथा को कौन समझे कौन जाने!
भविष्य की सुनहरी कल्पनाएं
कर, पुत्र को पालती थी
मिले लाल को कुछ ज्यादा
लेने से खुद को टालती थी
सुन उसके याचक-क्रंदन को
हो गई जो बावली थी
वही लाल आज आया है छीनने मुख का निवाला
लेकर सामने आ गया है, छीनने को प्राण, कुल्हाड़ा
सोचो तनिक क्या याद किया होगा उस,क्षण कातर मां ने
हाय उस मां की व्यथा को कौन समझे कौन जाने
आंखे उसकी बह रही थी, मुख से थी मौन ठहरी
अश्रु-कागज में लिखी,पढ़ कौन पाया, पीड़ा गहरी
हो गई थी बंद पवन और कांपने लगी धरा थी
हरिहर भी कांपे होंगे, मां ने ली सिसकी जरा सी
प्राण जिसको कभी दिए थे
प्राण उसी ने आज लिए हर,
होगा अप्रत्याशित कुछ नहीं, गर
बरसे कयामत आज धरा पर
कब तक उठा पाएगी धरती इन आँसुओं का बोझ भारी
कभी तो यह भी थक जाएगी और कहेगी बेचारी
मत कहो मुझे धरती माता, रिश्ता न मेरे से कुछ मानो
हाय उस मां की व्यथा को आज समझो अब तो जानो!