मांडवी
आओ सुनाऊं एक अनजानी विरहनी की गाथा
अप्रतिम सौंदर्य की थी वह मल्लिका
कुशध्वज चंद्रभांगा की वह थी लाड़ो शहजादी
रामायण की नायिका की थी वह अनुजा
नार वह विदुषी और गौरा की अनन्य भक्तिनी
प्रतिछाया थी वह अपनी भगिनी जानकी की
वटवृक्ष सीता चरित्र का जन जन करता गुणगान
वह पौध भी पली उसी बरगद के तले
कोई मनुज भी उसे न देख और न जान पाया
मैथिली शरण ने उसे किया गुमनामी से बाहर
उसके त्याग और विरह का किया खूब बखान
कैकई के वरदानों पर बनी रही दृष्टा तटस्थ
साध्वी जैसे हृदय ने विरक्त भाव ही जताया
सीताराम के हित को ही सर्वोपरि उसने माना
देख पति भरत का राम समर्पण सम्मान ही जताया
नंदीग्राम की पर्णकुटी में साध्वी बन जीवन बिताया
आत्मनियंत्रण बल की थी वह स्वामिनी शहजादी
उस विरहिनी का दर्द कोई मनुज समझ न पाया
इतिहास के पन्नों पर कभी न स्थान अपना बनाया
जैसे सैनिक का शौर्य नायक के ही हिस्से आया
उसकी कुर्बानियों पर मैं बलिहारी हुई हूं जाती
रामायण ने भी उस विरहनी को न अपनाया