माँ
४)
” माँ ”
माँ !
एक बार फिर से
मेरे पास आ जाओ न माँ !
गोदी में तुम्हारी मैं
सिर रखकर सो जाऊँ माँ !
तुम फिर मेरे बालों को
अपने हाथों से सहलाओ
सुलझाओ ना माँ !
ठंडी में तुम जो सुबह-सुबह
गोंद के लड्डू व बादाम का हलवा
ख़ुशबू से महकता हुआ खिलाती थी
तुम्हारे हाथों का वह स्वाद
अभी भी जिव्हा पर मेरी
रचा बसा है न माँ !
और माँ !
तुम जो डाँट-डपटकर
क्रोशिए की लेस -थालपोश
और ऊन का स्वेटर बनवाया करती थी
गलती होने पर उधेड़-उधेड़कर
फिर से बनवाया करती थी
तब तो बहुत ग़ुस्सा आता था
पर माँ !
आज जब में सलीक़े से
प्यारा सा स्वेटर बुनती हूँ तो
सबकी आँखों में तारीफ़ देख
प्रसन्नता से मन भर जाता है
याद है माँ !
सुबह-सुबह तुम हम सबको उठाकर
बिस्तर से खड़ा कर देती थी
फिर पापड़ बढ़िया भी तैयार करवाती थी
तुम कहती थी माँ
कोई न कहे कि तुम्हें ये काम नहीं आता
तुम तो हमें हर काम में
कुशल बनाना चाहती थी न माँ
और माँ !
चूल्हे के सामने हमें बिठाकर
तुम्हारा गरम गरम रोटी खिलाना
‘बस एक और ले लो‘कह कहकर
हमें ज़बरन खिलाना
अब कोई नहीं पूछता माँ
कि खाई या नहीं खाई
कहते हैं न कि
माँ की ममता में मिलावट नहीं होती
इसी लिए कहती हूँ माँ
एक बार फिर से आ जाओ न माँ
मुझे अपने गले से लगा लो न माँ
स्वरचित और मौलिक
उषा गुप्ता, इंदौर