माँ
मुझे पाने की उसने रब से की थी दुआ
उसकी हर ख्वाहिश , हर मन्नत में मैं ही था ।
वो बनकर वसुंधरा मुझे संसार में लाई
उसके आँँचल की छाँँव में , मैंने जन्नत थी पाई ।
मुझे देखकर अपना हर गम भूल जाती थी
भरकर मुझे बाहों में , माँँ फूली न समाती थी ।
सुनकर मेरी तोतली जुबाँँ खुश हो जाती थी माँँ
जागकर सर्द रातों में , उसने लोरियाँँ जो गाईं थी
खोकर अपने आपको वो मुझमें समाई थी ।
मेरी खिलखिलाती हँसी उसके मन को भाती थी
मेरी नजर उतारने को , माँँ काला टीका लगाती थी ।
अपने लाल की सलामती को हर तकलीफ सहती थी
जब तक मैं घर न आ जाऊँँ , माँ जागती रहती थी ।
दुनिया ने मेरी सूरत देखी , मकाँँ देखा
मां की बूढ़ी आँँखों ने हर जख्म , हर निशाँँ देखा ।
थामकर मेरी अंगुलि दिया बुलंदियों का जहाँँ
हर गम में सहारा , मेरा साहस
खुशियों की झोली थी माँ ।
मेरे लहू का हर कतरा , उसके लहू से बना
तारों-सी जगमग भोली थी माँँ ।
लेकर एक नूर-ए-जहाँँ , जमीं पर आई थी माँँ
खुदा की रहमत थी मुझ पर , जो मैंने पाई थी माँ ।
(मोहिनी तिवारी)