माँ
ग़ज़ल
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मुझे दुनिया में लाकर के मेरी माँ खुलके मुस्काई।
मेरी पहचान इतनी सी हूँ अपनी माँ की परछाई।।
मुझे दी गर्भ में शिक्षा नौ महीने कोख में पाला।
तभी तो पूज्य माता ही गुरु पहली ही कहलाई।।
खुदा भी आसमां से देखे मां के चरणों मे जन्नत।
नये अवतार ले लेकर खुदाई सारी ठुकराई।।
जमाने के सभी नाते परखते हमको पग पग पे।
मगर माँ प्रेम के बदले न मांगे कोई सच्चाई।।
दफन कर ख्वाहिशें कितनी वो बहतर परवरिश करती।
उसी को पालने में बेटों को होती है कठिनाई।।
न मारो वंश की खातिर उसे दुनिया में आने दो।
बता बेटों की चाहत में ये किसने बेटी दफनाई।।
समझ पायी हूँ मां के भाव को जब मैं बनी माता।
लगेआश्रम मेंअब ताला किसी की माँ है मुरझाई।।
किसी भी हाल में हो माँ नहीं वो बद्दुआ देती।
न मिलती थाह माँ के प्रेम में सागर सी गहराई।।
झलक पाने जिगर के टुकड़े की मैं कब तलक तरसूँ।
है अब परदेश में बेटा बढ़ी है जबसे मँहगाई।।
✍?ज्योति श्रीवास्तव साईंखेड़ा