माँ
‘माँ’
निकलती है
सबेरे-सबेरे
अकेले-अकेले
ले बुढ़ौती का सहारा
ठेगनी छड़ी
माँ !
पास वाले पार्क में
जहाँ फूलों से बतियाती
तितली और भँवरे होते
खेलती मदमस्त हवा
बाँटती वह
अपना सुख-दुःख,विचार,सुझाव
हल्का करती मन का भारीपन
जिन्दगी का खटर-पटर
घुटघुट
एकांत वातावरण से
रुँधे गले और भीगी पलकों से
अक्सर
माँ एक व्यथा है
माँ एक व्यवस्था है
माँ एक अवस्था है
माँ एक प्रथा है
माँ एक कथा है
घुसती है वह
फूलों की क्यारी में
तोड़ने
श्रद्धा के फूल
मोहक-मनमोहक
सुहावने-लुभावने
ललचावने
चढ़ाने के लिये
चुन-चुन
आस्था को
भूलकर सांसारिक मोह
माँ एक अर्चन है
माँ एक अर्जन है
माँ एक सर्जन है
माँ एक समर्पण है
माँ एक समर्थन है
चढाती है
श्रम की आँच पर
जीवन की पतीली
पानी-पसीना
चौड़ा सीना
सिखाती जीना
चढ़ना जीना
घर और बाहर
एक कर
खेतों से लाती
हरिअरी की खाँच
बोल-बोल झूठ
बोल-बोल साँच
आने न देती
बचपन पर आँच
माँ एक जीना है
माँ एक सीना है
माँ एक ताथैया-तीना है
माँ एक अमृत पीना है
माँ एक पसीना है
गाती है लोरी
सुलाती है बचपन को
बुलाती यौवन को
रोज का उठौना
करना तेल और उबटन
अंजन-वंदन
जंतर-मंतर
तीज-ताबीज
डिठौना
लौना-लकड़ी
चौका-बासन
लोटा-पानी
गोबर-सानी
पूजा-घानी
दही–मथानी
माँ एक अर्ज है
माँ एक गर्ज है
माँ एक कर्ज है
माँ एक तर्ज है
माँ एक फर्ज है
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ
(सर्वाधिकार सुरक्षित)