माँ — फ़ातिमा एक अनाथ बच्ची
”सूरा—40 अल-मोमिन,” पवित्र कुरआन को माथे से लगाते हुए उस्ताद अख़लाक़ ने कहा, ‘शुरू नामे-अल्लाह से। जो बड़ा ही मेहरबान और निहायत ही रहम करने वाला है। यह पवित्र कुरआन उतारी गई है, अल्लाह की तरफ से। जो जबरदस्त है। वह जानने वाला है। वह माफ़ करने वाला और तौबा क़ुबुल करने वाला है। वह सख़्त सज़ा देने वाला, बड़ी कुदरत वाला है। उसके सिवा कोई मा’बूद नहीं। अन्ततः उसी की तरफ हमें लौटना है।”
सभी बच्चे बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। अख़लाक़ बड़े ही खूबसूरत ढंग से पवित्र कुरआन की तालीम अनाथ बच्चों को दे रहे हैं। कुछ बच्चे जिन्होंने पिछला सबक़ याद नहीं किया था। कक्ष से बाहर खड़े होकर अगला सबक़ सुन रहे हैं।
“अख़लाक़ साहब, ज़रा घड़ी की जानिब देखिए। आपकी शाम की चाय का और बच्चों के खेल-कूद का वक़्त हो गया है।” कक्ष के दरवाज़े पर खड़ी अनाथालय की ‘आया’ सबीना ने कहा। खेल-कूद का नाम सुनकर बच्चे ख़ुश हो गए। ख़ुशी का एक सम्मिलित शोर पूरे अध्ययन कक्ष में गूंज उठा। सबीना और अख़लाक़ ने चेहरे पर बच्चों द्वारा मचाए गए शोर की ऐसी प्रतिक्रिया हुई जैसे उस शोर में दोनों ने अपने बचपन को याद किया हो। सभी बच्चे तुरंत बाहर की तरफ खेलने के लिए दौड़ पड़े।
अमेरिकी बमबारी में अनाथ हुए एक मुस्लिम राष्ट्र के बच्चे शहर के लगभग वीरान से पड़े यतीमखाने को अपने खेल-कूद और शोर-शराबे से आबाद कर रहे हैं। पहले मात्र बारह बच्चे थे। अब हाल ही में यतीम हुए बच्चों को मिलकर चौवन बच्चे यतीमखाने को रोशन कर रहे हैं। छह-सात बरस की नन्ही फ़ातिमा भी उन बदक़िस्मत बच्चों में से एक है। जो अभी हाल ही में अनाथ हुए हैं। दो दिन में ही नए बच्चे अनाथालय के पुराने बच्चों के साथ इतना घुल-मिल गए हैं कि खूब खेल-कूद कर धमाचौकड़ी मचाने लगे हैं। अनाथालय में पुनः रौनक लौट आई है।
“अब तो काफ़ी ठाट हो गए हैं तुम्हारे हमीदा” अख़लाक़ ने चाय का घूंट हलक से नीचे उतारने के उपरान्त कहा।
“ख़ाक ठाट हुए हैं।” हमीदा खातून जो यतीम खाने की इंचार्ज है, अपनी नाक-भौ सिकोडते हए बोली, “बच्चों ने नाक में दम कर रखा है। जब से नए बच्चे आए हैं। तबसे अपने लिए नहाने-धोने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती। सुन रहे हो न, अभी भी कैसा शोर-शराबा जारी है शैतानों का! पढाई-लिखाई में मन लगाते नहीं! सारा दिन खेल-कूद कर ऊधम मचाते रहते हैं। मेरा बस चले तो सबको पीट-पीट कर ठीक कर दूं।” हमीदा ने माथा पकड़ते हुए कहना जारी रखा। हमीदा सख़्त मिज़ाज औरत है जिससे यतीमखाने के पुराने बच्चे तो ख़ौफ़ खाते हैं, मगर नए बच्चों को अभी इसका अहसास नहीं है। क्योंकि नए बच्चों को अभी तक कोई सज़ा नहीं मिली है।
सूर्यास्त का वक़्त है। प्रतिदिन की भांति बच्चे अनाथालय परिसर में बॉल से खेल रहे हैं। परिसर के एक छोर पर ही बगीचे के बीच अनाथालय के कर्मचारी गपशप के साथ शाम की चाय का लुत्फ़ उठा रहे हैं। मौजूदा अनाथालय सरकारी सहायता प्राप्त है। पहले यह किसी पुराने रईस व्यक्ति की हवादार दो मंज़िला हवेली हुआ करती थी। अब हलकी-सी तबदीली यह हुई है कि पहले इसे अल्ताफ़ हाउस कहा जाता था जबकि आजकल इसकी पहचान अल्ताफ़ यतीमखाना के रूप में होती है।
“बच्चो थोड़ा आगे खेलो। यहाँ कांच की खिड़कियां हैं। कुछ टूट-फूट न हो जाए।” सबीना जो बच्चों हमदर्द है और अनाथालय में ‘आया’ का काम करती है, बड़ी रहम दिल, पाक और नेक औरत है। वह बच्चों के दुःख से द्रवित होती है और सुख से खुश। उसने खेलते हुए बच्चों को हिदायत दी मगर बच्चों पर उसके कहने का कुछ असर न हुआ। वह पूर्ववत वहीं खेलते रहे।
“ये साले अमेरिकी, क्यों हमारे मामलों में टाँग अड़ाते हैं। कितने घर बर्बाद कर दिए इन कमीनों ने। कितने लोग वक़्त से पहले भरी जवानी में कब्र में सुला दिए गए हैं। कितने बच्चे यतीम हो गए हैं?” अख़लाक़ के बगल में बैठे सज्जाद भाई ने बड़े ही गुस्से में भरकर कहा। सज्जाद भाई का दर्द वक़्त-बेवक़्त यकायक फूट पड़ता है। कभी भी, कहीं भी। यह बात यतीमखाने के सभी लोग जानते हैं।
“यह सब अपने-अपने आर्थिक संघर्षों की लड़ाई है। विदेशों में अपना बाज़ार और बादशाहत कायम करने की कोशिश है।” अख़लाक़ ने सुलझे हुए ढंग से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की और चाय का घूंट पुनः हलक से नीचे उतार दिया।
“ये अमेरिकी कभी अपने मंसूबों में कामयाब न हो सकेंगे। भाईजान, अगर हमारी अरब कम्यूनिटी यूँ ही कामयाब रही तो इंशा अल्लाह ताला, ये कभी हमारे तेल के कुँओं पर अपना क़ब्ज़ा नहीं कर सकेंगे।” सज्जाद का आतिशी स्वर अब भी बुलंद था।
“छोड़ो यार ये सब। क्यों शाम की चाय का लुत्फ़ ख़राब कर रहे हो?” अख़लाक़ ने सज्जाद को शांत करने के उद्देश्य से कहा।
“बिलकुल ठीक कह रहे हैं अख़लाक़ साहब आप! सज्जाद साहब तो हमेशा आतिश मिज़ाज बने रहते हैं।” हमीदा ने भी अख़लाक़ की बात का समर्थन किया। तत्पश्चात चाय का एक घूंट पीकर कप को पुन: मेज़ पर रख दिया। हमीदा हमेशा अपने स्वभाव अनुरूप धीरे-धीरे ही चाय पीती है। चाय का हर नया घूंट, पहले की अपेक्षा कुछ ठंडा ।
“देखो सामने बाग में कितने सुन्दर फूल खिले हैं! यूँ लगता है जैसे कुदरत ने अरबी में कुरआन की आयतें लिखीं हैं।” अख़लाक़ ने बड़े ही रोमानियत भरे अंदाज़ में कहा। हमीदा और सबीना खिलखिलाकर हंस पड़ी।
“आप दोनों की हंसी, मौसम को और भी ख़ुशनुमा बना रही है। इस मौक़े पर एक शायर ने क्या खूब कहा है—’या तो दीवाना क्या हँसे, या वो (ख़ुदा) जिसे तौफ़ीक़ दे। वरना दुनिया में आके मुस्कुराता कौन है?” अख़लाक़ ने बडे ही खूबसूरत अंदाज़ में शेर कहा।
“बिलकुल मैं सौ फ़ीसदी आपकी बात से इत्तेफाक रखता हूँ अख़लाक़ भाई जान। ऐसे मौसम में तो कोई दीवाना ही हंस सकता है।” और सज्जाद ने अपनी बात कहकर बड़े ही ज़ोरदार ढंग से ठहाका लगाया।
“आपका मतलब क्या है सज्जाद साहब! हम दोनों पागल हैं क्या?” हमीदा ने अपने और सबीना की तरफ से सवाल पूछा।
“अख़लाक़ साहब के शेर का मतलब तो यही बैठता है।” सज्जाद साहब ने अपनी चाय का कप उठती हुए कहा और मजे से चाय की चुस्कियां लेने लगे। हमीदा जल-भुन गई।
“अरे भई, तुम इतनी सीरियस क्यों हो गई? सज्जाद साहब तो मज़ाक कर रहे हैं।” अख़लाक़ ने हँसते हुए कहा।
गपशप जारी थी। तभी एक दुर्घटना घट गई. बगल में खेलते हुए बच्चों की बॉल अचानक मेज़ पर आ गिरीबॉल का टप्पा किनारा लेते हुए हमीदा के चाय के कप से टकराया और कप धड़ाम से ज़मीं पर गिरकर फूट गया। चाय के छींटे हमीदा के कपड़ों को ख़राब कर गए. अब हमीदा का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। सारे बच्चे डरके मरे सहमे से खड़े हो गए।
“किसने फेंकी थी बॉल?” हमीदा गुस्से से चिल्लाई।
“फ़ा… फ़ातिमा ने।” कांपते हुए लड़खड़ाते हुए एक बच्चा बोला।
“ऐ लड़की इधर आ। ज़्यादा चर्बी चढ़ गई है तुझे। यतीम खाने में आए हुए जुम्मा-जुम्मा दो दिन भी नहीं हुए और ऐसी गुस्ताख़ी?” हमीदा ने लड़की को पास बुलाया।
“जाने भी दो न, बच्ची है। ग़लती हो गई।” सबीना ने फ़ातिमा का बचाव करते हुए कहा।
“सबीना तू ‘आया’ है। इंचार्ज बनने की कोशिश मत कर। अगर मैं आज इस बच्ची को कठोर सज़ा नहीं दूंगी, तो ये सारे नए बच्चे मेरे सर पर चढ़ जाएंगे।” हमीदा ने एक ज़ोरदार थप्पड़ नन्ही-सी जान फ़ातिमा के गाल पर जड़ा। बेचारी छिटक कर दो हाथ दूर ज़मीं पर जा गिरी, “सबीना इसे ले जा और अँधेरी कोठरी में डाल दे और ख़बरदार जो इसे खाना दिया तो।”
अख़लाक़ और सज्जाद, हमीदा के ग़ुस्से को जानते थे। इसलिए ख़ामोश खड़े रहे। हमीदा अक्सर बच्चों को कठोर यातनाएं देती थी। पुराने बच्चे अकेले में उसे लेडी सद्दाम हुसैन कहकर पुकारते थे। अली ने वहीं अपनी पैन्ट में पेशाब कर दिया क्योंकि उसे वह दिन याद आ गया। जब सज़ा के तौर पर, उसे जेठ की कठोर धूप में दिनभर खड़ा था। चक्कर खाकर बेहोश होने के बाद उसे होश में आने और नार्मल होने में पूरा एक दिन लगा था। अली के बगल में खड़े रहमत की आँखों में घंटे भर मुर्गा बनाए रखने का दृश्य ताज़ा हो गया। तीन-चार दिनों तक उसकी जांघों की मासपेशियों में खिंचाव रहा था जिनमें होने वाली असहनीय पीड़ा को वह अब भी नहीं भूला था। दुबले-पतले आलम को यतीमखाने के दस चक्कर लगाना याद आ गया। बाक़ी बच्चों को भी समय-समय पर हमीदा द्वारा बरसाए गए डंडे, थप्पड़, घूंसे आने लगे। इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन की यातनाओं के क़िस्से बच्चों ने सुने हुए थे। कैसे अपने विरोधियों को सद्दाम ने बर्बर यातनाएं देकर बेरहमी से मौत के घाट उतरता था? कइयों को भूखे शेरों के आगे फेंक देना। चाकुओं से ज़ख़्मी तड़पते व्यक्ति को नमक लगाकर तड़पाना। अपनी बंदूक और तलवार से एक बार में शत्रुओं का काम ख़त्म कर देना उसके लिए आम बात थी। बच्चे रात को सोते वक़्त हमीदा की तुलना सद्दाम हुसैन से करने लगे थे। गुपचुप रूप से वह उसे लेडी सद्दाम हुसैन कहने से नहीं चूकते थे।
“फ़ातिमा आज लेडी सद्दाम के हाथों मारी जाएगी! बोल लगी शर्त!” बहुत ही धीमे स्वर में अली बुदबुदाया।
“अबे साले मरवाएगा क्या? साली के कान बहुत तेज़ हैं! सुन लेगी तो तेरा भी जनाज़ा साथ ही उठाना पड़ेगा।” रहमत मियां ने अली को अपने तरीक़े से टोका।
“साले, जब फ़ातिमा को थप्पड़ पड़ा था तो मेरा पेशाब पैंट में ही निकल गया था।” अली ने अपनी कमीज पैंट से बाहर निकाल ली थी ताकि किसी को गीली पैंट दिखाई न दे।
“साले, तू तो जन्मजात फट्ट है” रहमत धीमे से हँसते हुए बोला।
“तू कौन-सा शेर दिल है? तुझे भी तो घंटा भर मुर्गा बनाया था। बस हलाल होना बाक़ी था उस दिन।” अली ने व्यंग्य कसा।
“ये पीछे क्या खुसुर-फुसुर लगा रखी है?” अचानक हमीदा फ़ातिमा से ध्यान हटकर और बच्चों की तरफ देखकर बोली।
“कुछ नहीं मैडम जी।” रहमत ने बड़ी मुश्किल से अपना थूक हलक से नीचे गटकते हुए कहा
“तुम सब बच्चे खड़े-खड़े क्या देख रहे हो। जाओ पाक कुरआन का अगला सबक याद करो। जिसे सबक़ याद नहीं हुआ, उसे खाना भी नहीं मिलेगा। समझे।” शेरनी ने अगला नादरी फ़रमान सुना दिया
शुक्र है फ़ातिमा को एक थप्पड़ लगाकर सिर्फ अँधेरी कोठरी में एक रात भूखे रहने की सज़ा मिली है। वहाँ उपस्थित लोगों ने मन-ही-मन राहत की साँस ली। आदेशानुसार सबीना फ़ातिमा को जल्द से जल्द घटनास्थल से दूर ले गई। कहीं हमीदा का इरादा बदल न जाए और वह कोई दूसरी कठोर सज़ा बेचारी फ़ातिमा को न दे दे। बाक़ी बच्चे भी अध्ययन कक्ष की तरफ बिना एक भी क्षण गंवाए बढ़ गए।
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अँधेरे कमरे में मात्र एक ज़ीरो वॉट का बल्व अपना धुंधला प्रकाश फैलाए कोठरी में व्याप्त अन्धकार से संघर्ष करता जान पड़ रहा था। एकांत में फ़ातिमा को अजीब-सा डर सताने लगा। वह अपने हाथ-पैरों को एक कोने में सिकोड़कर बैठ गई। अपने माँ-बाप की स्मृति उसके जेहन में ताज़ा थी। उसे जब कभी डर लगता था तो अपनी माँ को कसकर पकड़ लेती थी या उनकी गोद में जाकर चिपक कर सो जाती थी। उसकी माँ उसके सर को सहलाती थी और उसे ‘अल्लाह’ का नाम लेने को कहती जिससे उसका डर भाग जाया करता था। ‘कहाँ चली गई तुम माँ, लौट आओ मेरी प्यारी माँ।’ कहकर फ़ातिमा की आँखों में अश्कों की दो बंदें तैर गई।
“अल्लाह-अल्लाह” कोने में हाथ-पैरों को सिकोड़कर बैठी फ़ातिमा इस तरह अपने भीतर के डर पर विजय पाने का प्रयास करने लगी। न जाने कितनी देर वह यूँ ही बैठी ‘अल्लाह-अल्लाह’ दोहराती रही। एकाएक उसे अहसास हुआ फ्रॉक की जेब में कुछ पड़ा है। हाथ डाला तो उसके हाथ में एक चाकलेट और चॉक का टुकड़ा था। उसे दिन की घटनाएँ याद आ गईं।
“शाबास फ़ातिमा, तुमने बहुत अच्छे से अपना सबक़ याद किया। तुम्हारा तरन्नुम अच्छा है। एक बार फिर से सुना दो।” अख़लाक़ सर के कहने पर फ़ातिमा ने फिर से गाया। पूरी क्लास मंत्रमुग्ध होकर सुन रही थी।
“लो यह चॉकलेट।” अख़लाक़ ने इनाम के तौर पर फ़ातिमा को एक चॉकलेट दी। फ़ातिमा अपनी सीट पर जाकर बैठ गई।
“तुम लोग अपना सबक याद करो, मैं अभी आता हूँ।” कहकर अख़लाक़ क्लास से बाहर चले गए।
फ़ातिमा को पीठ पर कुछ लगा। उसने मुड़कर देखा तो पता चला। चॉक का एक टुकड़ा रेशमा ने मारा था।
“क्या है री?” फ़ातिमा ने चॉक का वह टुकड़ा अपनी जेब में डालते हुए रेशमा से पूछा।
“अकेले-अकेले ही खाओगी चॉकलेट।” रेशमा ने बड़ी-बड़ी आँखें करके सर हिलाते हुए कहा।
“तू भी खा लेना मगर स्कूल ख़त्म होने के बाद।” फ़ातिमा मुस्कुराते हुए बोली, “अभी अपना सबक याद करो।”
अँधेरी कोठरी में वह चॉकलेट का रैपर फाड़कर चॉकलेट खाने लगी। खाने की आवाज़ परे वातावरण में गूंज रही थी। काफ़ी हद तक अब फ़ातिमा ने अपने डर पर काबू कर लिया था।
उसने चॉक से फ़र्श पर आड़ी-टेडी रेखाएं खींचनी शुरू की। पहले एक बिल्ली का चित्र बनाया। जो उसे अच्छा नहीं लगा तो मिटा दिया। फिर उसने सोचा क्यों न अपनी माँ की तस्वीर बनाऊँ। चॉक से बनी रेखाओं से वह अपनी माँ की छवि तो नहीं बना पाई मगर स्त्री की आड़ी-टेडी रेखाओं को मिलाने के बाद अंत में सबसे नीचे उसने अरबी भाषा में ‘माँ’ लिखा। इससे उसने अपनी माँ के होने के अहसास को चित्र में महसूस किया। चित्र इतना बड़ा था कि गोद वाले हिस्से में फ़ातिमा खुद सिमट गई। नन्ही बच्ची के लिए यही अहसास काफ़ी था कि वह अपनी स्वर्गवासी माँ की गोद में सोई है।
उसकी नन्ही स्मृतियों में अतीत के कई खुशनुमा पल तैरने लगे। तितलियों के पीछे पीछे दौड़ती नन्ही फ़ातिमा। माँ की गोद में खेलती नन्ही फ़ातिमा। पिता के कंधे पर झूलती नन्ही फ़ातिमा। टॉफी, चॉकलेट, बिस्कुट के लिए ज़िद करती नन्ही फ़ातिमा। कभी ढेरों टॉफियों, चॉकलेटों और बिस्कुटों के मध्य गुड्डे-गुड़ियों से खेलती नन्ही फ़ातिमा। तभी अचानक घर के बाहर एक धमाका! खिलौने छोड़कर खिड़की से बाहर झांकती! चौंकती! नन्ही फ़ातिमा!! बाहर चारों तरफ आग, अफ़रा-तफ़री, लोगों के चिल्लाने की आवाज़ें। यहाँ-वहां मरे हुए—लोग ही लोग! ज़ख्मी और तड़पते—लोग ही लोग! सड़क पर यत्र-तत्र बिखरा हुआ—खून ही खून! मांस-मांस के लोथड़े ही लोथड़े। यह सब देखकर गुमसुम–बेबस पड़ी—नन्ही फ़ातिमा! उस धमाके के बाद बाज़ार से कभी न लौटे अम्मी-अब्बू की राह तकती नन्ही फ़ातिमा! कई रोज़ अम्मी-अब्बू की राह तकती नन्ही फ़ातिमा! जिन्हें सोचकर, यादकर कई दिनों तक बिलखती नन्ही फ़ातिमा! बाक़ी अनाथ बच्चों के साथ अपने-अपने अम्मी-अब्बू को तलाशती कई मासूम आँखों के बीच नन्ही फ़ातिमा।
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रोज़ की तरह रसोइया महमूद भोजन कक्ष में सब बच्चों की प्लेटों में भोजन परोसने के बाद अपने कर्कश स्वर में बच्चों को भोजन के लिए पुकार रहा था। सब बच्चे आए भी मगर एक ने भी भोजन ग्रहण नहीं किया। न जाने क्या बात थी?
कुछ देर उपरांत हमीदा जब हाथ-मुंह धोकर भोजन के लिए कक्ष में आई, तब भी बच्चों का यही रवैया था। खाने पर रोज़ गिद्ध की तरह टूट पड़ने वाले बच्चे, आज खाने के सामने खड़े होकर भी उसे छू नहीं रहे थे।
“क्या हुआ बच्चों? खाना क्यों नहीं खा रहे आप सब।” हमीदा ने तेज़ स्वर में पूछा।
“इंचार्ज साहिबा, बच्चों की माँग है-जब तक फ़ातिमा न खाएगी, एक भी बच्चा खाना नहीं खाएगा।” रसोइया महमूद अपने कर्कश स्वर में बोला।
“अख़लाक़ सर नहीं दिखाई दे रहे हैं!” हमीदा ने भोजन की मेज़ पर अपने बग़ल में खड़ी सबीना से पूछा।
“मैंने कई बार कहा मगर उन्होंने हर बार यह कहकर टाल दिया कि उन्हें भूख नहीं है।” सबीना ने दुखी स्वर में कहा।
“ठीक है तुम सब खाओ या भूखे मरो। इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे तो जोरों से भूख लगी है। मैं तो खूब जम कर खाऊँगी।” हमीदा ने सामने रखी थाली से रोटी का एक कोर तोड़ते हुए कहा।
“हाँ इंचार्ज साहिबा, एकदम सही बात। इन सबको भूखा मरने दो। सबकी अक्ल ठिकाने आ जाएगी जब रात को पेट में चूहे दौड़ेंगे।” रसोइए महमूद ने फिर अपने कर्कश स्वर में कहा। वह दाँत फाड़े हंस दिया। भद्दी कर्कश हंसी।
“तुमने खाना परोस दिया।” हमीदा ने महमूद से बड़ी सख़्ती से पूछा।
“जी।” अपनी हंसी पर विराम लगते हुए कर्कश स्वर में महमूद ने जवाब दिया।
“तो फिर यहाँ क्या कर रहे हो? चुपचाप रसोई में जाओ।” हमीदा ने महमूद से उसी सख़्त लहज़े में कहा। वह गर्दन झुकाए रसोई में चला गया। हमीदा ने रोटी का कोर सब्ज़ी में डुबोया मगर उसे वह मुंह तक न ले जा सकी।
“एक बात कहूँ!” सबीना ने हमीदा से अपने मन की बात कहनी चाही।
“क्या?” रोटी का कोर थाली में वापिस रखते हुए हमीदा बोली।
“फ़ातिमा को माफ़ कर दो। उस नन्ही-सी जान को अँधेरी कोठरी में डालकर आपने अच्छा नहीं किया। शायद यही वजह है कि अख़लाक़ सर ने भोजन नहीं किया।” सबीना ने अपनी निजी राय राखी, “आज ही सुबह अख़लाक़ सर ने इनाम के तौर पर फ़ातिमा को चॉकलेट दी थी।”
“किसलिए?” हमीदा के चेहरे पर वही सख़्ती थी।
“फ़ातिमा ने अपने तरन्नुम से सबका दिल छू लिया था। इतनी कम उम्र में इतने अच्छे ढंग से गाकर उसने अपना सबक़ सुनाया था कि इनाम स्वरूप उसे सर ने चॉकलेट दी और आज ही आपने सज़ा के तौर पर उस नन्ही जान को काल कोठरी में डाल दिया है। शायद यही वजह है तमाम बच्चों की तरह अख़लाक़ सर ने भी भोजन नहीं किया है।”
“और सज्जाद।” हमीदा ने पूछा
“उन्होंने भी न खाने का फ़ैसला किया है। वह अध्ययन कक्ष में ज़ोर-ज़ोर से कुरआन पढ़ रहे हैं।” सबीना ने भरे मन से कहा। हमीदा जानती है—जब सज्जाद का मन भरी पीड़ा और विषाद से भर जाता है, तब वह तेज़–तेज़ स्वर में पवित्र कुरआन पढ़कर अपने दर्द को कम करते हैं।
“चलो अंधेरी कोठरी की तरफ, फ़ातिमा को ले आएं।” हमीदा ने नरम भाव से कहा। सबीना की खुशी का ठिकाना नहीं था।
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अँधेरी कोठरी की मेन लाइट ऑन की तो फ़ातिमा चॉक से बनाई अपनी माँ की छवि के बीचों-बीच बड़े आराम से चैन की नींद सो रही थी। मानो जन्नत में कोई नन्ही परी सोई हो। सबीना और फ़ातिमा को ऐसा महसूस हुआ कि फ़ातिमा वाकई में अपनी मरहूम माँ की गोद में सोई हुई है। हमीदा ने अपने मोबाइल फ़ोन पर वह खूबसूरत नज़ारा क़ैद कर लिया, “वो देखो, इन्चार्ज साहिबा, बच्ची ने चित्र के नीचे ‘माँ’ लिखा है।” सबीना ने अति भाव विभोर स्वर में कहा। उसकी आँखों में आँसू छलछला आए।
“जल्दी दरवाज़ा खोलो सबीना।” हमीदा को अपनी कठोरता का पहली बार अहसास हुआ। उसका हृदय अपराध बोध से घिर गया। फ़ातिमा के प्रति उसके हृदय में असीम संवेदना उभर आई।
“अल्लाह! मुझे माफ़ करना।” हमीदा ने अपने गुनाह की माफ़ी मांगते हुए कहा, “आज से मैं किसी भी बच्चे पर सख़्ती नहीं करूंगी।” हलचल होने से फ़ातिमा की नींद टूट गई थी। वह उठ खड़ी हुई। सबीना और हमीदा, फ़ातिमा के सामने खड़े थे।
“आ जाओ मेरी बच्ची।” रुंधे हुए गले से भर्राए स्वर में हमीदा ने कहा। उसकी ममतामयी दोनों बाहें फ़ातिमा की तरफ फैल गई थीं।
“माँ।” कहकर नन्ही फ़ातिमा हमीदा से लिपट गई। बच्ची भी काफ़ी लम्बे अरसे से माँ के प्यार की भूखी थी।
“हाँ, मेरी बच्ची। आज से मैं ही तेरी माँ हूँ। तू हमेशा मेरे ही साथ रहेगी।” बरसों से सोई हुई ममता जगी तो हमीदा के भीतर की लेडी सद्दाम हुसैन अपने आप मर गई। बग़ल में खड़ी सबीना यह दृश्य देखकर भाव-विभोर थी। वह बस रुमाल से अपने आंसुओं को पोंछने में व्यस्त थी।
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