माँ भारती की व्यथा
” माँ भारती की व्यथा ”
सदियों से संस्कार, संस्कृति और सभ्यता का अनूठा संगम लिए “माँ भारती” तिरंगे से बनी उज्ज्वल साड़ी में अपने बहुआयामी सौन्दर्य की अनुपमता के साथ अपने शेर की सवारी पर नित्य की तरह टहलने के लिए निकली | उस दिन कुछ चिंता और चिंतन की लकीरें उनके माथे पर स्पष्ट झलक रही थी | इससे पहले ऐसी चिंता में माँ भारती को कभी भी नहीं देखा | उनके चिंतित मन को देखकर ऐसा लग रहा था ,कि कहीं न कहीं कोई गंभीर घटना या कोई हादसा हुआ हो ! जिसे वो बताना चाह रही है ,किन्तु चाहते हुए भी नहीं बता रही है ? परन्तु उनका गहन चिंतन इशारा कर रहा था ,कि कुछ माजरा जरूर है | ये सब चुपके से भारती माँ का भाई हिन्द महासागर व्याकुल सा देख रहा था | अपनी बहन को इस चिंतित स्वरूप में देखकर उससे रहा नहीं गया और बहिन के चरण-स्पर्श कर नतमस्तक होकर वंदन करते हुए बोला – बहिन आज कुछ चिंतित लग रही हो ? आखिर बात क्या है ?
कुछ देर तो माँ भारती स्तब्ध रही ये सोचकर कि आखिर क्या कहूँ ? तभी एक लंबी साँस लेते हुए रोंधें गले और सजल आँखों से अपनी व्यथा को बताने की हिम्मत जुटाई |
क्या कहूँ भैया ? जमाने को दोष दूँ या खुद अपनी कोंख को कोसूं ! मेरी तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा ! यह कहते -कहते माँ भारती चुप्पी के आगोश में चली गई |
तभी चुप्पी के सन्नाटे को चीरते हुए हिन्द महासागर ने कहा ,कि आखिर कुछ तो कहो बहिन ! चुप रहना कोई समस्या का हल नहीं है |
हाँ भैया ! ठीक कहते हो | माँ भारती ने एक साँस में कहा !
तो अपने दिल की व्यथा को बाहर निकालो जिससे कोई हल निकाला जा सके ….हिन्द महासागर ने कहा |
भैया घर का कलह बाहर के लोगों के हौंसले बुलंद कर सकता है, पर मेरी कोई भी संतान इस बात को समझने की कोशिश नहीं करती | ऐसे कई मौके दुश्मनों ने छोड़े भी कहा हैं |कितनी बार पड़ौसी ने घात लगाकर मेरी आँखों के सामने मेरे ही कुछ बच्चों को गहन निद्रा में सुला दिया था ,और तब तो हद ही हो गई थी जब संसद में बैठे मेरे बच्चों को मारने की नाकाम कोशिश भी की थी ! ग़र मैं वो वार अपनी छाती पर नहीं लेती तो जाने कितने बेटे-बेटियाँ मेरी आँखों से सदा के लिए ओझल हो जाते ! ये तुम भी जानते हो ? माँ भारती ने कहा |
हाँ बहिन ! बच्चों की रक्षा करना हमारा ही दायित्व है | हिन्द महासागर ने चिंतित होकर कहा |
क्या बच्चों का कोई दायित्व नहीं बनता है भैया ? सभी दायित्व माँ के ही बनते हैं | भारती माँ ने कुछ ओजस्वी स्वर में कहा और चुप हो गई |
बनता तो है बहिन ! पर कलयुग है ! बेटे-बेटियाँ अपनी मनमर्जी चलाते हैं , उन्हें जो अच्छा लगता है, वहीं तो करते हैं | जब मैं इनके द्वारा किये गये भ्रष्टाचार,बेईमानी,लूट,घोटालों के बारे में सुनता हूँ तो मेरा सर भी शर्म से झुक जाता है | हद तो तब हो जाती है ,जब हमारे ही बेटे विभीषण बनकर अपने घर की खुफिया जानकारी पड़ौसी दुश्मन को देने में भी नहीं हिचकिचाते | हिन्द महासागर ने वेदना व्यक्त करते हुए कहा |
अब तुम ही बताओ भैया ! क्या मेरा चिंतित होना लाज़मी नहीं है ? ऐसी हालत तो मेरी तब भी नहीं थी ,जब मुझे गुलामी की बेड़ियों से जकड़ा गया था | माँ भारती ने सजल आँखों से कहा |
हाँ बहिन ! ये तो मैं भी जानता हूँ कि उस समय बेटे-बेटियाँ कितना आदर और सम्मान देते थे हमें ! अपनी जान तक को दाँव पर लगा दिया उन्होनें ! लेकिन बहिन आज वक्त आ गया है , कि इनको कुछ शिक्षा,संस्कार और नैतिकता की बातों को दोबारा से समझाने का ! हिन्द महासागर ने कुछ कड़े शब्दों में कहा |
हाँ भैया ! इसी सोच में डूबी थी कि आखिर कैसे समझाऊँ मैं इनको ? माँ भारती ने कहा |
इतना कहकर माँ भारती चल पड़ी -अपने लक्ष्य को वास्तविकता का जामा पहनाने और साथ में उन संस्कारों की पोटली लेकर……. जिसमें इंसानियत ,प्रेम , सहयोग, सौहार्द्र, सच्चाई , नेकदिली ,नैतिकता ,भाईचारा , अहिंसा, न्याय, संतोष, विश्वास, आदर, दया, दान, कर्तव्यनिष्ठा ,उदारता,मैत्री इत्यादि मानवीय गुणों को बाँध रखा था ,ताकि अपने बच्चों में बाँट सके |
(डॉ०प्रदीप कुमार”दीप”)
मगसम 18011/2016