माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ
गीत- माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ
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भैया के ही जैसे हर पल खिलखिलाना चाहती हूँ।
माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ।
है यही बस लालसा देखूँ ज़माने को जरा मैं,
कुदरती रंगीनियाँ दिलकश खजाने को जरा मैं।
तुम भले ही मुख नहीं यह देखना हो चाहती पर,
चाहती देखूँ तुम्हारे मुस्कुराने को जरा मैं।
फर्ज बेटी का जो होता मैं निभाना चाहती हूँ-
माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ।
पैदा होते फेंक देना मर नहीं सकती सुनो मैं,
हर तरफ ज़ालिम हैं लेकिन डर नहीं सकती सुनो मैं।
क्यों किसी के डर से मेरा खून करने तू चली है?
माफ तेरी जैसी माँ को कर नहीं सकती सुनो मैं।
जो भी है अधिकार मेरा आज पाना चाहती हूँ-
माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ।
हर समय यूँ कोख में मरती रहेंगी बेटियाँ क्या?
ज़ुल्म पुरुषों के सदा सहती रहेंगी बेटियाँ क्या?
जानवर की भांति हमको रख लिया है कैद कर के,
हरकदम कदमों में ही ढहती रहेंगी बेटियाँ क्या?
जन्म दे दो नारियों को हक़ दिलाना चाहती हूँ-
माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ।
– आकाश महेशपुरी
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नोट- यह रचना मेरी प्रथम प्रकाशित पुस्तक “सब रोटी का खेल” जो मेरे द्वारा शुरुआती दिनों में लिखी गयी रचनाओं का हूबहू संकलन है, से ली गयी है। यहाँ यह रचना मेरे द्वारा शिल्पगत त्रुटियों में यथासम्भव सुधार तथा भाव पक्ष में आंशिक बदलाव के साथ पुनः प्रस्तुत की जा रही है।