माँ तेरे एहसान !
तेरा बचपन में मुझे पुचकारना
मेरी गलतियों पर फटकारना,
माथे पर काला टीका लगाना;
थपकियाँ देकर सुलाना
नहीं भूल पाउंगा कभी
मरने के बाद भी..मरने के बाद भी…
मेरा स्कूल ना जाने पर अड़ना,
और उस पर तेरा लड़ना
मेरा रास्ते से वापस आना;
तेरा धक्के मारकर भगाना
नहीं भूलूंगा कभी..
मरने के बाद भी..मरने के बाद भी…
तेरा डंडे से पीटना,
मेरा जोरों से चीखना
फिर रूठकर सोना;
और शाम को मनाना
कितना अनोखा था वह,
कहूंगा धोखा था वह
मरने के बाद भी.. मरने के बाद भी …
तेरा परिस्थितयों से लड़ने का साहस,
ओह! कितना अदम्य था वह !
मेरा “एक रुपया” मांगना;
कितना अक्षम्य था वह
मेरी मांगने की हसरत
तेरी लुटाने की फ़ितरत
रखूंगा याद..
मरने के बाद भी.. मरने के बाद भी…
मुझे बड़े होते देखना,
पैरों पर खड़े होते देखना
मेरी कामयाबी की ज़िद पर;
अड़े होते देखना
आदत रहेगी तेरी..
मरने के बाद भी.. मरने के बाद भी…
मेरा देर से घर आना,
तेरा खिड़की पे नज़र गड़ाना
फिर देर तक डाटना;
जैसे सारे दु:ख़ बाटना
लगता रहेगा अज़ीब..
मरने के बाद भी.. मरने के बाद भी…
वो चिंता की हद है,
सीख लिया है उसने मेरी
फिक्र मे जीना;
खुशियों के मोती देकर,
सब गम के आंसु पीना
उसकी इसी बात से
करूंगा नफ़रत..
मरने के बाद भी.. मरने के बाद भी…
तेरे पहाड़ जैसे एहसान,
बिन तेरे धरा शमशान
तेरे सहारे के बिना,
ख़ुद को उठा कैसे पाउंगा
चाहकर भी कर्ज़ तेरा
चुका कैसे पाउंगा
तू चुप है मगर दिल मे,
सैलाब समेटे बैठी है;
अ माँ तेरी ही ममता तो
जर्रे-जर्रे मे लेटी है
मेरे दु:खो की ढाल
खुद के दु:ख़ से अनजान
मैं अधम, ‘केशव’ से
बस मांगु यही वरदान
क़ि
जन्मु तेरी ही कोख़ से
मरने के बाद भी.. मरने के बाद भी.. .
– सिर्फ नीरज चौहान क़ि कलम से..