*”माँ के चरणों में अर्पण”*”
✍??? “माँ के चरणों में अर्पण”“???✍
“माँ” शब्द बोध से आँखे नम, शृंग (शीश) श्रद्धा से चरणों में स्वतः ही नमन होता है,
हमारी खुशियों के लिएँ उसके तप, त्याग, बलिदान ओर निष्ठा का अहसास होता है,
“माँ” ग़र आँचल में मुँह छुपा रोती भी होगी देख बच्चें को पोछ आँसू वो मुस्कराती है,
अपने बच्चें की चेहरे की हँसी से वो ख़ुद के दिल के दुःख दर्द भूल जाती है,
दुनियाँ के ग़म से बचाने को वो हमें अपनें आँचल में मुस्करातें हुएँ छुपा लेती है,
“माँ” तब भी दर्द सहती ओर रोती होंगी जब बच्चा पेट में लात मारता है,
वो तो उस वक़्त आज भी रोती होगी जब बच्चें को कहीं चोट लगती है,
“माँ” उस वक़्त भूल जाती अपनी चोट का दर्द जब बच्चें को दर्द से रोता देखती है,
“माँ” ख़ुद कितनी ही बीमार हो बच्चें के बीमार होने पर “माँ” आज भी दिल से कराह उठती है,
“माँ” तपती धूप में आँचल की ठंडी छाँव, वर्षा में छाता बन आज भी रक्षक बनती है,
लड़के ज़माने भर से “माँ” आज भी बच्चें को मासूम ओर सच्चा ठहराती है,
ज़माने में से किसी को भी “माँ” अपने बच्चें पे उँगली उठाने नहीं देती है,
“माँ” शब्द बोध से आँखे नम, शृंग (शीश) श्रद्धा से चरणों में स्वतः ही नमन होता हैं।।
मुकेश पाटोदिया”सुर”✍??? “माँ के चरणों में अर्पण”“???✍
“माँ” शब्द बोध से आँखे नम, शृंग (शीश) श्रद्धा से चरणों में स्वतः ही नमन होता है,
हमारी खुशियों के लिएँ “माँ” के तप, त्याग, बलिदान ओर निष्ठा का अहसास होता है,
“माँ” ग़र आँचल में मुँह छुपा रोती भी होगी देख बच्चें को पोछ आँसू वो मुस्कराती है,
अपने बच्चें की चेहरे की हँसी से “माँ” ख़ुद के दिल के दुःख दर्द भूलाती है,
दुनियाँ के ग़म से बचाने को “माँ” हमें अपनें आँचल में मुस्करातें हुएँ छुपा लेती है,
“माँ” तब भी दर्द सहती ओर रोती होंगी जब बच्चा पेट में भी लात मारता है,
“माँ” तो उस वक़्त आज भी रोती होगी जब ज़माने में बच्चें को कहीं चोट लगती है,
“माँ” उस वक़्त भूल जाती अपनी चोट का दर्द जब बच्चें को दर्द से रोता देखती है,
“माँ” ख़ुद कितनी ही बीमार हो बच्चें के बीमार होने पर “माँ” आज भी दिल से कराह उठती है,
“माँ” तपती धूप में आँचल की ठंडी छाँव, वर्षा में छाता बन आज भी रक्षक बनती है,
लड़के ज़माने भर से “माँ” आज भी बच्चें को मासूम ओर सच्चा ठहराती है,
ज़माने में से किसी को भी “माँ” अपने बच्चें पे उँगली उठाने नहीं देती है,
“माँ” के अहसासों का आभास आज होता तो रोम-रोम हमारा उसका कर्ज़दार लगता है,
“माँ” शब्द बोध से आँखे नम, शृंग (शीश) श्रद्धा से चरणों में स्वतः ही नमन होता हैं।।
मुकेश पाटोदिया”सुर”