माँ मेरी मंदिर भी मस्जिद, माँ ही गिरजाघर लगे……माँ के कदमों में मेरे तो देख चारों धाम है
अब नहीं मुझको पता दिन है भला या शाम है
आदमी देखो यहाँ हर दूसरा गुमनाम है
काम जो करता रहा उस पर उठी ये उंगलियाँ
जो कसीदे झूठ के पढ़ता उसी का नाम है
आजकल बस झूठ के चलने लगे हैं दौर यूँ
राह सच्ची जो चला वो आदमी बदनाम है
बेवजह हर आदमी अब बैर है रखने लगा
हर तरफ देखो यहाँ क्यूँ कर मचा कुहराम है
देख दिन फिर एक बीता जागती इक रात है
चाँद बनकर डाकिया लाता नहीं पैगाम है
माँ मेरी मंदिर भी मस्जिद, माँ ही गिरजाघर लगे
माँ के कदमों में मेरे तो देख चारों धाम है
लोधी डॉ. आशा ‘अदिति’
बैतूल