माँ की यादें
माँ की यादें जुड़ी होती हैं
लोरियों से
नसीहतों से
कौशल से
शिक्षा से
स्नेह भरी विदाई की बेला से
परन्तु
मेरी यादें जुड़ी हैं
माँ के पार्थिव शरीर से
वो उनका चार कंधो पर आना
परिजनों का गायत्री मन्त्र के उच्चारण से
किसी महान शक्ति से जुड़ने का प्रयत्न करना
सबका मुझे रो रोकर दुलारना
और मैं नींद और मृत्यु के अंतर से अनभिज्ञ
यूँ ही सहज टॉफियों और बिस्कुट से बहलती हुई
सोचती हूँ अब
कितना कठिन रहा होगा उनके लिए
अपने शरीर से विदा होना
ज़रूर उनके मन ने देखा होगा
हमें मुड़मुड़ कर एकटक अनेकों बार
दहल उठी होगी उनकी आत्मा भी
अपने अपरिपक्व बच्चों को
इस सर्वाइवल ऑफ़ दी फिटेस्ट की दुनियां में छोड़ते हुए
परन्तु
वहां जो लोग खड़े थे
वे न केवल मेरे अपने थे
अपितु
सर्वाइवल ऑफ़ दी फिटेस्ट से भी अनभिज्ञ थे
वे प्यार करने वाले
सहज ही अपने वातावरण , गली , मोहल्ले
शहर से जुड़ने वाले लोग थे
और हम उनकी छत्रछाया में थे
हम परिजनों के स्नेह के घेरे में
सुरक्षित थे
तब
पूंजीवाद , व्यक्तिवाद के नारे नहीं थे
शायद इसीलिए
सर्वाइवल ऑफ़ दी फिटेस्ट के नारे भी नहीं थे
सुना है
यह नारा डार्विन ने नहीं
उसके बाद किसी ने दिया है
परन्तु
इससे क्या अंतर पड़ता है
मनुष्य की लालच को
हम कोई भी लिबास पहनाएं
वो हर बार
सर्वाइवल ऑफ़ दी फिटेस्ट तक सिमट जाता है
परन्तु
मनुष्य सोचना जानता है
वो स्वयं से बड़ा स्वयं का लक्ष्य रखता है
वो तारों के नीचे सिर्फ सोता नहीं
जागता भी है
वो अंधकार के साथ जुड़ता भी है
वो प्यार करता है
तो अपना अहम भी तोड़ डालता है
इसलिए माँ चाहे जितना भी छटपटाई हों
वो जरूर जानती रही होंगी
वहां खड़े उनके परिजन
विकसित मनुष्य हैं
जंगल में घूमते हुए शिकारी
मात्र सर्वाइवल ऑफ़ दी फिटेस्ट वाले
जानवर नहीं !
——शशि महाजन