माँ की पीड़ा
9 माह अपनी कोख़ में रखकर
ना जाने कितना दर्द सहती होंगी माँ !!
फूलों की तरह कोमल रहने वाली
ना जाने कितना बिलखती होंगी माँ !!
पल-पल दर्दनाक दर्द को सहती माँ
काँटो में रहकर अनेक लहू के कतरे
बहती है माँ !!
अपने सारे कर्मों का फ़ल हमें देती है माँ
ना जाने कितने वर्षों की तपस्या का फल
देती है माँ !!
अपने लहू की बूंद-बूंद से सींचती जो माँ
ना जाने कितने जन्मों का प्रेम मोह देती है
माँ !!
लाखों की कटु बाते सुनती-बुनती है माँ
फ़टे पुराने कपड़ो में रहकर गुज़ारा करती है
माँ !!
अपने आँचल की छाव में रख हमें
ख़ुद तूफानों ओर ज़िंदगी की आख़री
जंग तक लड़ती है माँ !!
आँचल में रख अमृत पान कराती है माँ
ख़ुद पीती ज़हर का पियाला ऐसी होती
है माँ !!
दुःखों का समंदर ख़ुद में समेटे बैठी है माँ
खुशियों की चंद ककड़ ही लिये बैठी है माँ !!
जो दुःखो के ज़हर को हँसते हँसते पी जाये
वो महादेव के स्वरुप ही होती है माँ !!
WRITTING BY
KAPIL RAJPUT (MEERUT)
NOTE:- एक कविता “माँ” के लिए ???