माँ की पीड़ा
लघुकथा/संस्मरण
माँ की पीड़ा
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पिछले दिनों अपने एक साहित्यिक मित्र की बीमार माँ को देखने जाना पड़ा।विगत हफ्ते से उनकी सेहत में सुधार नहीं हो रहा था। लिहाजा जाने का फैसला कर लिया।एक दिन पूर्व ही अपने एक अन्य कवि मित्र को अपने आने की सूचना दी और उसी शहर में अपनी मुँहबोली बहन को भी अपने आने के बारे में अवगत कराया, तो उसने भी मेरे साथ चलने की बात कही। स्वीकृत देने के अलावा कोई और और रास्ता न था।
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अगले दिन कवि मित्र सुचनानुसार निर्धारित स्थान पर मिले। हम दोनों लोग पास में ही बहन के घर गए। हालचाल का आदान प्रदान हुआ। बहन के आग्रह का सम्मान करना ही था। अतः चाय पीकर हम सब अस्पताल जा पहुंचे। हमारे साथ बहन का बेटा भी था।
हम चारों को मित्र महोदय बाहर आकर मिले और हम सब उनके आई सी यू में माँ के पास जा पहुंचे।
वहां मित्र महोदय ने मुझसे पूछा कि हम किसी आयोजन में आये हैं?
मैंने न में जवाब दिया तो वे भावुक होकर रो पड़े।
हमनें उन्हें ढांढस बंधाया। बहन माँ के पास बड़े प्यार से उन्हें सहलाते हुए बातें कर रही थी। ताज्जुब तब हुआ कि वे उसे अपनी बेटी समझ उसकी हर बात का जवाब भी बड़े प्यार से दे रही थीं। अर्ध मूर्छा में भी वे श्लोक,भजन और गीत बड़े सधे अंदाज में सुना रही थी और उनका स्वर भी अपेक्षाकृत साफ था। जबकि मित्र महोदय ने हमें बताया था कि मां की आवाज बहुत कम समझ में आ रही है।
बहन भावुक हो रही थी, फिर भी हौसला बनाए थी। उसने मां के बाल सँवारे, सिंदूर लगाया। अपने हाथों से दो तीन चम्मच खाना खिलाया, पानी पिलाया उनका मुंह साफ किया।इस बीच मां को कई बार उठाना बैठाना भी पड़ा।
माँ की स्थिति को देखते हुए हम सब दुखी थे।पर ईश्वर की इच्छा के आगे बेबस थे। माँ अब देख भी नहीं पा रही थीं। लेकिन उस हालत में भी जब मित्र ने उन्हें बताया कि हम सब आपसे मिलने और आशीर्वाद लेने आये हैं, तब वे बहुत खुश दिखीं और बोली मेरा आशीर्वाद है तुम सबको। बहुत खुश रहो।
अब बहन को अपने आँसू सँभालना कठिन हो रहा था,वो माँ के पास से मेरे पास आकर खड़ी हो गई। मैंने उसे हिम्मत दी।
उसकी इस पीड़ा को मैं समझ रहा था, क्योंकि बहुत छोटी उम्र में ही उसने अपनी माँ को खो दिया था। शायद ऐसे हालातों में बेटियां माँ के सबसे करीब होती हैं। या यूं कहें कि माँ की पीड़ा भला बेटी से बेहतर और कौन समझ सकता है।
लगभग दो घंटे हम सब वहां थे, सबके चेहरे पर एक अजीब सा सन्नाटा था। वहां से निकलने के बाद हमें सामान्य होने में भी समय लगा।
मगर उतनी ही देर में बहन के संवेदनशील भावों ने माँ की पीड़ा की जैसे विस्तृत व्याख्या समझा दी हो। मैं आंतरिक रुप से बहन की संवेदना के प्रति नतमस्तक होकर रह गया। जिसने चंद समय में ही हमारी नज़रों में अपने बड़प्पन का उदाहरण पेश कर जैसे हमें गौरवान्वित कर दिया।
आज भी उसकी आंखों में उस समय भरे आँसू जब भी याद आते हैं, तो झकझोर झकझोर देते हैं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उत्तर प्रदेश
८११५२८५९२१
© मौलिक, स्वरचित