माँ की चाह
माँ की चाह
“मालती अब तुम्हारी तबियत कैसी है? ठीक हो न!”
“जी हाँ,जी नहीं!”
“ये हाँ,न क्यों कर रही हो? ठीक-ठीक बताओ।”
“ठीक है, पर पूरी तरह नहीं।”
“फिर तुम काम पर क्यों आई हो? अपनी बेटी मीना को ही भेज देती ,थोड़े दिन आराम करती और जब पूरी तरह स्वस्थ हो जाती तब आती।”
“जी! मालकिन, कह तो मीना भी यही रही थी।”
“ऐसा क्या हो गया? जो तुमने मीना को नहीं आने दिया?”
“नहीं मालकिन, ऐसी कोई बात नहीं है। वो क्या है न!”
“क्या हुआ? जो तुम बोलने में हिचकिचा रही हो।”
“मालकिन, हमने अपनी बेटी का दसवीं का फार्म भरवाया है,ओपन स्कूल से।स्कूल में नाम लिखाकर तो कक्षा आठ के बाद पढ़ा नहीं पाई,लेकिन मैं चाहती हूँ कि मेरी बेटी पढ़ाई-लिखाई करे।दस-पंद्रह दिन बाद उसके इम्तिहान हैं। जब तैयारी करेगी,तभी तो पास होगी।”
“बिल्कुल सही कह रही हो,तैयारी तो करनी ही पड़ेगी।”
“तभी तो उसे नहीं आने दिया,वह तो कह रही थी कि चली जाती हूँ। मालकिन, मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटी भी मेरी तरह लोगों के घरों में काम करे।वैसे गरीब का धन तो उसकी मेहनत होती है पर विद्या तो सबका धन होती है। पढ़-लिख लेगी तो उसकी ज़िंदगी सँवर जाएगी।”
“तुम बिल्कुल सही सोच रही हो,मालती। जीवन में पढ़ाई-लिखाई बहुत जरूरी है।”