माँ आज भी मुझे बाबू कहके बुलाती है
दिन दिनांक – रविवार, १२ मई, २०२४
विषय : मातृ दिवस विशेषांक
विद्या : कविता
शीर्षक : “माँ” आज भी मुझे बाबू कहके बुलाती है
***
यशोदा-कौशल्या से ज़्यादा लाड लड़ाती,
देख-देख अठखेलियां मंद-मंद मुस्काती,
आशीषों की झड़ी लगा के लेती है बलाए,
आज भी माथा चूम जी भरके देती दुवाएं,
ममता का सागर वो निश्छल बरसाती है !
“माँ” आज भी मुझे बाबू कहके बुलाती है !! १ !!
क्या कोई वैद्य और हकीम जान पायेगा,
रब के बाद कौन ऐसे मुझे समझ पायेगा,
बिना किसी यंत्र हाल-ऐ-दिल जान लेती,
बिना मंत्र दिल-ओ-दिमाग पहचान लेती,
समझ के मेरी परेशानी सीने से लगाती है !
“माँ” आज भी मुझे बाबू कहके बुलाती है !! २ !!
दूर रहकर भी, मेरी हर खबऱ रख लेती है,
कुछ खाया या नहीं शक्ल से परख लेती है,
मेरी पसंद नापसंद मुझसे ज़्यादा जानती है,
पचास में भी मुझे पांच का बच्चा मानती है,
बिठाकर पास हाथों से निवालें खिलाती है !
“माँ” आज भी मुझे बाबू कहके बुलाती है !! ३ !!
गर्भ में अपने बसाकर दुःख सहा कितना,
वसुधा के ह्रदय, अंबर के आँचल जितना,
हर मौसम के थपेड़े चुपके हँसकर सहती,
बन आये चाहे जां पे मगर कुछ न कहती,
बुरी बला से बचाने काला टिका लगाती है !
“माँ” आज भी मुझे बाबू कहके बुलाती है !! ४ !!
चोट मुझे लगती, दर्द में वो तड़प जाती है,
कोई मुझे कुछ कहे तो वो भड़क जाती है,
कर्ज उस स्नेह का चाहकर चुकाया न जाए,
भर जिंदगी का उसे बराबर उठाया न जाए,
जब पाता खुद असहाय गोद में सुलाती है !
“माँ” आज भी मुझे बाबू कहके बुलाती है !! ५ !!
!
स्वरचित : डी के निवातिया