म़ाँज़ी
याद आते हैं वो गुज़रे जमाने मुझको।
ज़ब्त हैं जो गुजारे ल़म्हे मुझको ।
क्यों ख़लिश है हाल़ातों की सीने में अब तक।
उठती है क्यों टीस दिल के ग़ुबारो में अब तक।
लगता है फ़लक भी बहाता अश़्क अब तो सावन में।
ग़ुमशुदा लगता है चाँद भी अब आसमानों में ।
ग़ुलशन में ग़ुल बेजार नज़र आते हैं ।
चहकते पंछी भी अब सोग़वार नज़र आते हैं।
होता हूँ बदग़ुमा अब तो डूबते सूरज और इस उफ़क से।
जैसे किसी ने सुर्ख़ कर दिया हो चीरकर सीना फ़लक के।
रात के अंधेरे अब मुझे रा़स आते हैं।
दिन के उजाले तो तेरी यादों को पास लाते हैं। भटकता हूं अब तो बंजारों की तरह इस क़दर ।
ग़र खत्म हो यह शामे गम का सफर।
और करे आग़ाज़ एक खुशनुमा सी स़हर।