महिला दिवस पर विशेष…
नर और नारी….
एक नहीं दो-दो मात्राएँ हैं भारी।आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के लिए एक दिन सुनिश्चित किया गया है पूरा शहर,अखबार,रेडियो,टी.वी,सोशल साइट्स,समूचा बाजार महिला दिवस की होर्डिंग से सजा है ।दौर है महिला सशक्तीकरण का,नारी के सम्मान का,उसके अधिकारों को तवज्जों देने का यह सब सिर्फ कागजी आधार तक ही सीमित जान पड़ता है महिला सशक्तीकरण का दौर इस कदर समूचे समाज में छाया है कि स्तनपान,सैनेटरी नैपकीन,अन्तरवस्त्र आदि तमाम तरह के शब्दों का उपयोग और प्रयोग साहित्य और बाजार में छाया है इसके पीछे किस प्रकार का संदेश समाज को मिल रहा है शायद यह बात किसी के दिमाग में अब तक नहीं कौंधी है सरेआम नारी की इज्जत तार-तार हो रही है और लोग कह रहे हैं नारी सशक्तीकरण का दौर है आखिर क्या चाहती हैं वे बोल्ड होती स्त्रियाँ ?मेरे हिसाब से शायद फिर से स्वयं को समेटना,अपने अधिकारों के हनन में स्वयं को शामिल करना।
कहा जाता है कि एक खुशहाल घर के पीछे नारी का सबसे बड़ा हाथ होता है यदि इसी विचारधारा को जेहन में बरकरार रखें तो समूचे समाज की खुशहाली में भी नारी का हाथ है तो फिर नारी की आबरू को क्यों भरी भीड़ में शामिल किया जाए जाहिर सी बात है हम अपनी स्थिति के लिए किसी एक पक्ष को दोषी साबित नहीं कर सकते हैं स्वाभाविक है ताली बजाने के लिए दोनों हाथों की आवश्यकता होती है एक हाथ के सहारे सम्भव नहीं समाज की प्रगति के लिए नर और नारी दोनों की समान आवश्यकता है दोनों के संयोग से ही इस सृष्टि का निर्माण हुआ है किसी एक के अभाव में यह सम्भव नहीं ।
सृजन की परिधि है नारी,निश्छल और प्रेम की प्रतिमूर्ति है नारी,सपनों को उड़ान देने में पूरी तरह से शामिल है नारी।
कहीं बेटी के रूपी,कहीं पत्नी के रुप में तो कहीं माँ और बहन के स्नेह के रुप में।समाज की बदलती विचारधाराएँ और मॉडलाइजेशन का शिकार होती नारियाँ क्या अपने भविष्य को सुरक्षित रख सकती हैं ?यह प्रश्नचिन्ह कोई आम प्रश्नतिन्ह नहीं छोटे आकार में बहुत बड़ी बात सहेज रहा है।बलात्कार,गैंग रेप जैसी परिस्थितियों का शिकार हो रही नारियाँ आत्महत्या की तरफ अपने को धकेल रही हैं वो कहती है उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं क्योंकि वह किसी पराये मर्द की बाँहों का शिकार हो चुकी है आखिर यही बात पुरुषों पर भी तो लागू हो सकती है लेकिन नहीं सारी पवित्रता का भार तो एक स्त्री के जिम्मे ही आया है राम ने सीता की अग्नि परीक्षा ली पांडव ने भरी सभा में द्रौपदी की आबरू को तार-तार होने दिया ।पुरुष को परमेश्वर,साथी,संगी और मीत की उपमा से स्त्री ने विभूषित किया है तो क्या उसके परमेश्वर का यह अधिकार नहीं कि वह उसकी रक्षा के लिए तैयार रहे। एक दिन खास होने से नारीवाद पर हजार शब्द गढ़ देने से किसी की स्थिति में सुधार पूर्ण रूप से नहीं किया जाता यही संकेत है कि कथनी और करनी में बहुत बड़ा अन्तर है। आज महिला दिवस की जय-जयकार हो रही है वही कुछ पल भर की सुर्खियों में महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों का रहस्य सामने नजर आने लगता है गली,मुहल्ले तक चलने में वह डरी हुई है,सहमी हुई है तो समाज के सामने खुद को साबित करने के लिए उसे कितने संघर्षों से हर दिन लड़ना पड़ता होगा।सारी वाहियात हरकते सामने आ जाती है गली से कोई लड़की गुजर भर तो जाए-देख यार क्या माल जा रही है ,वो तेरी वाली अाइटम है।तमाम तरह की छींटाकशीं बस में बैठी है खूबसूरत लड़की तो बस का ड्राइवर बार-बार शीशे में उसकी तस्वीर को घूरता रहता है जब तक कि पूरे अंगों पर शोध न कर ले और तमाम तरह के सुन्दर और मधुर संगीत बजाकर अपनी उत्तेजना को शान्त करने का प्रयास करते हैं जिनकी नहीं शान्त होती वह निर्भया जैसे कृत्य का रुप देने में सफल होते हैं।क्योंकि इनके लिए कोई नियम कानून नहीं बने हैं रुपयों की गड्डी जमा करो और सरेआम मौज करो।यही है आज के सम्मान में नारी का दिन। फिर भी एक स्त्री अपने घर से लेकर समाज की सीढ़ियों तक पहुँचने में अनेक संघर्षों का सामना करती है
और अपने दृढ़ विश्वास के जरिये स्वयं को साबित करने का प्रयास करती है-
सृजन का आधार हो तुम
विश्वास,प्रेम,त्याग का आकार हो तुम
तुम ही गार्गी तुम ही अपाला
चण्डी और शक्ति का प्रकार हो तुम
गृहिणी,माँ,बहन,बेटी सब तुम
खिलखिलाते परिवार का प्यार हो तुम
महावर लगे पैरों से जब प्रवेश करती तुम
चमक उठता घर-आँगन फैलती खुशियाँ चारों ओर
नौ माह जीवित रखती अपने,अन्दर एक संसार
धरा पर जब देती आकार तुम पर होते अनेक प्रहार
नहीं मिट सका आज भी वह भेद
जिसमें समाहित है सम्पूर्ण संसार
किस अधिकार किस गौरव की बात करूँ
आज भी है चारों तरफ भेद
अक्सर सुना है स्त्रियों को समझना आसान नहीं
कोई कहता है त्रिया चरित्र है इनके पास
हाँ सच है,सही कहते हो
नहीं समझ सकते तुम इनको और इनके रहस्य को
समेट लेती हैं ये बहुत सारी चींजे अपने अन्दर
जैसे तुमको भी नौ महीने के गर्भ में धारण किया
तुम बाहर नहीं आये थे तब संसार में
फिर भी समझ लेती थी तुम्हारी सारी जरूरतें और
तमाम गतिविधियाँ
तो बाहर आने के बाद क्या तुम नहीं समझ सकते उनको
जो कहते हो
स्त्रियों को समझना आसान नहीं।
हाँ सच है स्त्रियों को समझना आसान नहीं।
महिला दिवस की बहुत सारी शुभकामनाएँ….
शालिनी साहू
ऊँचाहार,रायबरेली(उ0प्र0)