महिला दिवस दोहा नवमी
आया फिर महिला दिवस, उपजा जी में हर्ष
तुझसे समझा ज़िन्दगी, पल-पल है संघर्ष
मैंने ना देखी कभी, चेहरे पे थकान
नारी ने हर रूप में, बांटी है मुस्कान
संस्कारों से हीन ही, करता है अपमान
माँ से उपजे प्रेम को, भूल गया इन्सान
नारी को आदर मिले, मिले पूर्ण सम्मान
नारी के अपमान से, लज्जित हो भगवान
कलयुग में संस्कार ही, बुराई से बचाय
नर-नारी उत्तम वही, धर्म-कर्म समझाय
स्त्री का सम्मान ही, मूल्यों की पहचान
यही धर्म का मूल है, यही पुरुष की शान
माते सृष्टि स्वरूप सम, पिता धर्म का रूप
यही कर्म की रीत है, ज्ञान यही अनुरूप
मात प्रेम यदि छाँव है, पिता ज्ञान की धूप
सत्कर्मों की सीख से, बनता धर्म स्वरूप
मात-पिता आशीष दें, बनो धर्म अनुरूप
हरदम ही फूलो फलो, निखरे रूप अनूप