महिला दिवस कुछ व्यंग्य-कुछ बिंब
महिला दिवस
कुछ व्यंग्य-कुछ बिंब
शहर
उफ ! मैं तो थक गई
कहां-कहां सम्मान..
बिस्तर पर स्मृति चिह्न
सपनों में महिला दिवस।
इसका मैसेज, उसकी कॉल
कहाँ जाऊं, सबकी कॉल
गांव
हुक्का भरा, कुट्टी काटी
फसल बोई, फसल काटी
सुना है आज कुछ था…
छोड़ो, हमारा नहीं था।
नौकरी
दफ्तरों में स्वागत
घर आते ही आफत
ये करो, खाना बनाओ
छुट्टी क्यों नहीं होती…।।
घर
सुबह से ही आश्चर्य
सास-बहू दोनों खुश
काश हर दिन ऐसा हो
प्यार का महिला दिवस हो।
साहित्य
खुद पर लिखी कविता
छंद-अलंकारों से सजी
वाह वाह सबकी मिली
आह आह जिंदगी कटी।।
मां
रसोई में मां
पलंग पर मां
बेसाख्ता दर्द
दवा खामोश
मजदूर
मेरी लाचारी
दो रोटी-पानी
हे मेरे भगवान
मैं भी हूं नारी।।
इतने बिंब लिखकर
एक सवाल उभरा
यह…….महिला दिवस
शहरोंं में ही क्यों होता है ????
….एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह ( कामायनी)
-सूर्यकांत द्विवेदी