महा-स्वारथ
चौसर के पाँसो से नहीं,
पाण्डव ‘भविष्य’ से खेले थे।
मानो आमंत्रण देकर,
आये कष्टों को झेले थे।
वन में विधि विपरीत बड़ी,
पाण्डवों के साथ थी।
अब सिर्फ शून्य-सम्पत्ति,
उन पाँचों के हाथ थी।
मगर मन को हरने वाले,
हरि जिनके साथ हों।
एक नहीं, दो भी नहीं,
हजार उनके हाथ हों।
तब विधि भी बदल देती है।
दिशा अपनी चाल की
विधाता भी कहते हैं,
जय हो गोपाल की।।
अब घमंंड के दुर्योधन का,
मिलने वाला दण्ड था
अति-अहंकार कौरवों का,
अब होने वाला खण्ड था|
दुर्योधन की अभिलाषा ने,
उसकी भाषा को भ्रष्ट किया।
जो स्वयं उसके अपने
उसने उन्हीं को कष्ट दिया।