“महास्वारथ”
स्वरचित खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग से लिया गया अंश—–
“धृतराष्ट्र की सभा में श्रीकृष्ण-विराटरूप दर्शन”
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अहंकार में अंधा होकर,,
दुर्योधन ने हरि को बाँधना चाहा।
जो हैं अविनाशी, जग-प्रकाशी,,
उसी पर अचानक आँधना चाहा।।
सिंधु-तट पर ज्वार आया,,
छा गयी चारों ओर छाया,,
अब हरि को क्रोध आया।
पर न दुर्योधन को बोध आया।।
अचानक श्याम हुआ आकाश,,
छा गया चारों ओर पीत प्रकाश।
दुःशासन-शकुनि हुए हताश,,
सभा में स्वयं प्रकट हुए अविनाश।।
रूप बढ़ता जाता है,,
कोप बढ़ता जाता है,,
सभा में बैठा सभा का,,
भूप भी कँप जाता है।
सभा-शिखर पर मस्तक स्थित,,
धृतराष्ट्र सुत हेतु हुए चिंतित।
पापी सारे हुए विकल-व्यथित,,
पर भीष्म-विदुर थे आनंदित।।
जब पर्वताकार हरि बोले,,
तो दरबारी डगमग डोले।
देख दुर्योधन,,
क्यों डरता है?
अब क्यों तन में,,
कम्पन करता है?
बाँध,, हाँ बाँध,,
हाँ बाँँध-बाँध-बाँध रे।
आँध,, हाँ आँध,,
हाँ मुझ पर तू आँध रे।।
बाँध,, कहाँ से बाँधेगा तू ,,
मैं तेरे ही अब समक्ष खड़ा हूँ।
देख चारों ओर दृष्टि से तू,,
मैं ही अब यहाँ सबसे बड़ा हूँ।।
✍️भविष्य त्रिपाठी