महास्वारथ
स्वरचित खण्डकाव्य महास्वारथ के प्रथम सर्ग से
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शनि भी शायद शांत नहीं,,
कौरवों पर हो रहे थे।
धर्मी-धृतराष्ट्र भी सुत,,
मोह निद्रा में सो रहे थे।
महाभारत यह समर नहीं था,,
सिंहासन का स्वार्थ था।
परंतु इस भीषण के पीछे,,
छिपा एक परमार्थ था।।
परमार्थ था वह धर्म के प्रति,,
विजय धर्म की होनी थी।
एक बार फिर रणभूमि,,
रक्त-रंजित हो रोनी थी।।
जब आकांक्षा बढ़ जाती है,,
तो आपदा बन जाती है।
तब अधर्मियों के नाश हेतु,,
भीम की गदा ठन जाती है।।
भविष्य त्रिपाठी,,,,,,,,,,