महाशक्तियों के वर्चस्व के युद्ध से उत्पन्न विभीषिका एवं दुष्परिणाम
रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध की पृष्ठभूमि में यदि विचार किया जाए तो यह एक महाशक्ति की वर्चस्व स्थापित करने के लिए दूसरे छोटे राष्ट्र को उसके निर्देशों पर चलने के लिए विवश करने के सिवा कुछ भी नहीं है। यूक्रेन में विगत वर्षों में बहुत अधिक उन्नति की है एवं स्वयं को एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में स्थापित किया है। तथा आर्थिक संपन्नता से आत्मनिर्भर होकर एक प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में स्थापित किया है। जिसका उसे पश्चिमी देशों विशेषतः अमेरिका का समर्थन मिला है।
यूक्रेन की संपन्नता एवं आत्मनिर्भरता तथा पश्चिमी देशों का समर्थन रूस को नागवार गुजर रहा था।
रूस हमेशा से कोशिश करता रहा है कि यूक्रेन उसके अधीनस्थ रहे। उसने स्वायत्तता की मांग कर रहे अलगाववादी तत्वों की समय-समय पर सहायता कर यूक्रेन को कमजोर करने की भी कोशिशें की हैं।
इधर यूक्रेन ने भी यूरोपियन देशों के सानिध्य में रूस की अवहेलना कर NATO देशों के साथ अपनी नज़दीकियां बढ़ाई है।जिन्होने यूक्रेन को भरसक सहायता प्रदान करने का वचन दिया था। दरअसल इन देशों का सहायता प्रदान करने का तात्पर्य यूक्रेन को आर्थिक सहायता पहुंचाना तथा सैन्य संसाधनों से सक्षम बनाना था। जिससे रूस के यूक्रेन पर बढ़ते हुए सैन्य दबाव को कम किया जा सके।
इस प्रकार की सहायता प्रदान करने में इन देशों के यूक्रेन के साथ संबंधों में व्यापारिक हितों की रक्षा प्रमुख उद्देश्य रहा है।
यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेन्सकि को यह भरोसा था कि रूस के साथ युद्ध की स्थिति में नाटो देश उसके साथ खड़े होंगे और उन देशों से प्राप्त सैन्य सहायता के बल पर वह रूस को करारा जवाब दे सकेगा।
इसे यूक्रेन के राष्ट्रपति की अदूरदर्शिता कहें या नाटो देशों द्वारा भरोसे पर रखकर दिया गया धोखा , जिसके परिणाम स्वरूप यूक्रेन को युद्ध की विभीषिका का सामना करना पड़ रहा है। और अपने दंभ में डूबे रूस ने एक फलते फूलते देश को तबाह कर के रख दिया है। यहां पर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नाटो देश भी रूस की दी गई धमकी से डरकर यूक्रेन का खुलकर साथ देने से कतरा रहे हैं।
इधर पश्चिमी देशों के संगठन ने रूस पर प्रतिबंध लगाकर युद्ध समाप्त करने की कोशिश की है।
अंतरराष्ट्रीय संगठन में भी रूस की सदस्यता समाप्त करने की घोषणा भी की है। परंतु यह सब अमेरिका द्वारा संचालित रूस के विरुद्ध वर्चस्व की लड़ाई का एक हिस्सा मात्र है। अभी तक युद्ध समाप्त करने के लिए कोई भी राष्ट्र शक्ति द्विपक्षीय वार्ता मैं मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए खुलकर सामने नहीं आई है। जिससे मानवता को ताक पर रखकर उत्पन्न की गई युद्ध की विभीषिका एवं दुष्परिणामों से बचा जा सके।
एक विचारणीय विषय है कि महाशक्तियां अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए किसी भी राष्ट्र को तहस-नहस करके रख सकती हैं।
पूर्व में भी अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए ISI पाकिस्तान के जरिए तालिबानों को सैन्य प्रशिक्षण एवं सैन्य साजो सामान से लैस कर गृह युद्ध के लिए प्रेरित किया। उसके पश्चात शांति स्थापित करने के नाम पर अपने सैनिक भेज कर अफगानिस्तान में अपना सैन्य आधार बनाने का प्रयास किया। एवं अफगानिस्तान में एक अंतरिम सरकार का गठन करने में प्रमुख भूमिका निभाई।
परंतु पासा कुछ उल्टा ही पड़ गया, जिन तालिबानियों को आई एस आई पाकिस्तान के माध्यम से प्रशिक्षण दिया , उन्होंने अमेरिका के हाथों की कठपुतली सरकार को उखाड़ फेंका और अफगानिस्तान पर आधिपत्य जमा लिया। इधर ISI पाकिस्तान ने सोचा कि तालिबानियों के जरिए वह बलूचिस्तान में संघर्षरत विद्रोहियों को समाप्त कर अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर सकेगा , परंतु उसे अपने इरादों में कामयाबी नहीं मिली।
अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों को भी तालिबान के विरुद्ध संघर्ष का सामना करना पड़ा , जिसमें उसने अपने कई सैनिक गवां दिए। अमेरिकी सैनिकों की दुर्दशा का कारण अफगानिस्तान के भूभाग से अपरिचित होना एवं प्रतिकूल जलवायु से उनकी सैनिक क्षमता पर प्रभाव प्रमुख था।
अंततोगत्वा उसने अपने समस्त सैनिक वापस बुला लिए एवं अफगानिस्तान में स्थित सैन्य साजो सामान को निष्क्रिय एवं नष्ट कर दिया।
अपने अहम की तुष्टि के लिए अमेरिका ने ईराक को नष्ट कर सद्दाम हुसैन को मौत के घाट उतार कर उसके द्वारा अनकी अवहेलना करने का बदला ले लिया।
अतः हम कह सकते हैं संपूर्ण विश्व में महा शक्तियों के वर्चस्व की लड़ाई में छोटे एवं प्रगतिशील राष्ट्रों को गुटबाजी कर बलि का बकरा बनाया जाएगा।
अतः भविष्य में हमें वैचारिक एवं आर्थिक गुलामी का सामना करना पड़ सकता है।
मानवीयता , मानवाधिकार , स्वायत्तता , वैचारिक स्वतंत्रता , संसाधनों की संपन्नता एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता , इत्यादि केवल कोरी बातें होकर रह जाएंगी।