महावारी
महावारी नहीं है महामारी
ये तो है बस जैविक क्रिया
ना समझो इसे अभिशाप
ना ही करो इसपर विलाप।।
ज़माना वो बीत गया अब
जब पुराने थे ख्यालात
लोग महावारी को थे सोचते
बस ब्रह्महत्या का श्राप ।।
लेकिन फिर भी ना जाने क्यों
अभी भी हम समझते नहीं
जो अनुसंधान कहते है
क्यों उसे हम मानते नहीं।।
हर रोज़ बनाती है खाना
और सबको खिलाती है
आज ऐसा क्या हो गया
जो अलग उसकी थाली है ।।
रसोई है उसका दूसरा घर
जहां काम कर होती थककर चूर
ऐसा भी क्या हो जाता है
जो रहना पड़ता है उससे भी दूर।।
सब काम करती है वो
हमारा ध्यान रखती है वो
फिर भी क्यों अकेले
रहने को मजबूर हैं वो।।
बच्चे जो जन्मे है उससे ही
उन्हें भी वो छू नहीं सकती
तीन चार दिन तक उनके
लिए भी अछूत है रहती।।
कैसी है ये परंपरा
कैसा आडंबर का भूत
जो जन्म देता है उन्हें
वो भी हो जाता अछूत।।
इस वक्त तो उसे जरूरत है
बोलो बस दो बोल प्यार से
मिलेगा बहुत सुकून उसे और
खुशी भी तुम्हारी देखभाल से ।।
ज़रूरत है आगे सोचने की
ऐसी कुरीतियों को हटाने की
अब उसपर न्याय करने की
नई रीतियों को बनाने की।।