महाभारत का सूत्रधार ।
महाभारत के सूत्रधार,
इनमें प्रमुख हैं यह चार।
भीष्म पितामह,ना चाहते हुए भी,
कौरव पक्ष में ही खड़े थे।
गांधार राज शकुनि,
अपनी बहन के घर पर रहते थे।
कहते हैं, इनकी भी एक प्रतिज्ञा थी,
गांधारी बहन से धृतराष्ट्र की शादी हुई थी।
भीष्म इसको बलपूर्वक लाए थे,
और नेत्र हीन से विवाह कराए थे।
गांधारी ने तो इसको नियति मान लिया था,
अपनी आंखों पर पट्टी बांध दिया था।
किन्तु शकुनि को यह स्वीकार नहीं था,
तब उसने यह प्रण किया था,
जैसे सत्यवती के पिता का प्रण था,
सत्यवती का पुत्र राज करेगा ,
लेकिन यह शकुनि कह ना सका था।
इस लिए वह दुर्योधन को उकसा रहा था,
युवराज बनने के लिए तैयार कर रहा था।
लेकिन जब यह पद युधिष्ठिर को मिल गया,
तो तब शकुनि विकल हो गया।
और उसने दुर्योधन को भड़काया,
पांडवों के विरुद्ध उकसाया ।
छल करके लाक्क्षागृह बनवाया,
और उसमे पांडवों को मारने का लक्ष्य बनाया।
पांडव तो इस ब्यू से बच निकले,
यह युक्ति विदुर ने बताई थी,
और संकट में पांडवों ने अपनाई थी।
किन्तु वह प्रकट होकर सामने ना आए थे,
और दुःख व्यक्त करते हुए दुर्योधन को युवराज बनाए थे।
उधर पांडवों ने कुछ समय बनो में बिताया,
इधर दुर्योधन ने अपना प्रभाव बढ़ाया।
यहां द्रौपद ने अपनी पुत्री का स्वयम्बर रचाया,
मछली की आंख को जो भेदेगा,
वहीं वीर द्रौपदी से विवाह करेगा।
अर्जुन ने यह लक्ष्य पा लिया था,
किन्तु अपना परिचय नहीं दिया था।
इस स्वयम्बर में श्रीकृष्ण भी आए थे,
और वही पांडवों को पहचान पाए थे।
लेकिन धीरे-धीरे यह बात आम हो गई,
और अब पांडवों को वापस लाने की तैयारी की गई।
हस्तिनापुर में सभी प्रसन्न हो गए थे,
किन्तु दुर्योधन, शकुनि, और धृतराष्ट्र दुखी हो रहे थे।
अब यह समस्या आ रही थी,
युवराज किसे बनाएं,
यह गुथ्थी उलझा रही थी।
तब भीष्म पितामह ने यह सुझाया,
हस्तिनापुर का विभाजन कराया।
युधिष्ठिर को खांडव प्रस्थ दिया गया,
श्रीकृष्ण के परामर्श पर इसे स्वीकारा गया।
कड़ी मेहनत से उन्होंने इसको संवारा था,
इन्द्र प्रस्थ के रूप में इसको पुकारा गया ।
तब पांडवों ने राजसूर्य यज्ञ संपन्न कराया,
दुर्योधन वह शकुनि को यह पसंद नहीं आया।
अब फिर से छल कपट करने का चक्र चलाया,
ध्यूत क़ीडा को तब पांडवों को बुलाया,।
और छल बल से पांडवों को हराया,
पांडवों का सब कुछ दांव पर लगवाया।
यहां तक कि पांडव स्वयम भी हार गए,
तो तब द्रौपदी को भी दांव पर लगा कर हार गए।
द्रौपदी को अपमानित किया गया था भारी,
खींची गई थी सबके सम्मुख उसकी साड़ी।
यह अपमान पांडवों को बेचैन कर गया था,
भीम ने तो तब यह कहा था,
दुशासन ने जो अपमान किया है,
उसके लहू से मैं, पांचाली के केश धोउंगा,
और दुर्योधन की जंघा को तोडूंगा ।
लेकिन कुचक्र अभी थमा नहीं था,
पांडवों को वनवास, और अज्ञात वास करने को कहा गया।
पांडवों ने इसे भी निभाया,
और वनवास के साथ अज्ञात वास भी गुजारा ।
लेकिन दुर्योधन को अब भी संशय बना,
अज्ञात वास पुरा नही हुआ।
और वह अपनी जीद पर अड गया,
और इन्द्र प्रस्थ को लौटाने को तैयार नहीं हुआ ।
कितनो ने उन्हें समझाने का प्रयास किया था,
श्रीकृष्ण ने भी अपने में एक प्रयास किया था।
लेकिन धूर्त्त दुर्योधन ,व कपटी शकुनि के साथ ही,
धृतराष्ट्र को भी यह स्वीकार नहीं था।
धृतराष्ट्र ने तो अपनी आंखों पर,
पुत्र मोह की भी पट्टी बांध दी थी,
विदुर, पितामह की भी बात नहीं मानी थी।
और तो और उसने अपनी पत्नी की भी, नहीं मानी थी,
जो उसको बार बार समझा रही थी।
इस प्रकार महाभारत का युद्ध सामने आया था,
धृतराष्ट्र ने अपनी कुंठा, को बड़ा मान लिया,
शकुनि ने अपनी ईर्ष्या की खातिर यह सब कुछ किया,
देवव्रत भीष्म पितामह ने, अपने को राजगद्दी के प्रति,
निष्ठावान मानकर ,अनुचित को भी नजर अंदाज कर दिया।
और दुर्योधन ने तो, वह सब कुछ किया,
जिससे बचा जा सकता था।
किन्तु उसकी हठ, उसका क्रौध, उसका अहंकार,
उसको अंधा बना गया था।
जो आंख से देख तो सकता था।
किन्तु दृष्टि में मलिनता के कारण,
उसको भांप नहीं सकता था।
यह वही दुर्योधन था, जिसने अपने अंहकार में,
अपने साथ अपने भाईयों को भी मरवा दिया,
और जिस माता पिता के सौ पुत्रों में से एक भी नहीं बचा।
यह परिणाम सामने आएंगे,
यह विद्वानों ने जतला दिया था।
इस प्रकार महाभारत के सूत्रधार पर विचार किया,
प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर सब ही ने, यह कार्य किया है,
किसी का कम तो ,कोई ज्यादा दोषी इस युद्ध का रहा है।