महल
विधा….गीत
विषय….महल
दिनांक….27/04/2020
महलों में सब लोग कहां खुश रहते हैं
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महलों में माना सब अच्छा अच्छा है
लेकिन मन फिर भी खुछ कच्चा- कच्चा है
खुली हवा और खुली तालाब नहीं मिलती
बंधे- बंधे से घूटे -घूटे से रहते हैं
महलों में सब लोग कहां खुश रहते हैं
सोने- चांदी की थाली में खाना है
दिल के दर्द भला किसे सुनाना है
अपनी -अपनी धुन में सारे रहते हैं
और दीवारों से ही दिल की कहते हैं
महलों में सब लोग कहां खुश रहते हैं
माना तनिक नहीं बाधाएं वहां रहती
जीवन की सच्चाई वहां नहीं रहती
सुविधाओं से लैस हमेशा रहतें है
ताक़त वाले लोग उन्हें सब कहतें है
महलों में में सब लोग कहां खुश रहते हैं
झूला- गिल्ली -डंडे का खेल नहीं जानें
चैनगैर ,कबड्डी का, खेल ना पहचानें
रस्सी कूद , लट्टू की फिकरन को
देख बस ताली ही महज बजातें है
महलों में सब लोग कहां खुश रहते हैं
रेत के घर बनाने उन्हेंं नहीं आते
कागज वाली नाव कभी ना चलाते
हल्ला- गुल्ला -शोर-शराबा वहां नहीं
वो अपनी दुनिया में ही गुम रहते हैं
महलों में सब लोग कहां खुश रहते हैं
बागों का हुड़दंग भला वो क्या जानें
धूल भरा मिरदंग भला वो क्या जानें
कुश्ती और कबड्डीयां बस देखी है
अपनें को राजा -राजा वो कहते हैं
महलों में सब लोग कहां खुश रहते हैं
चिड़िया- तितली और पकड़ना जुगनू को
घुंगरू- ताली और बजाना घुंगरू को
ढोलक पर वो थाप लगानी क्या जानें
दुनिया से अनजान हमेशा रहते हैं
महलों में सब लोग कहां खुश रहते हैं
सूखी रोटी वालों के चेहरे देखो
खुलकर बिना डरे बाहर सोकर देखो
हर हालत में खुशी-खुशी से रहतें है
वो सब पाकर भी दुखी से रहते है
महलों में सब लोग कहां खुश रहते हैं
घूटी- घूटी सी घर की गुड़िया रहतीं हैं
बूढ़ी आंखें तन्हा बहुत कुछ कहतीं है
रिश्तों में खट-पट हमेशा रहती है
बाहर ना कोई बात वो “सागर” कहते हैं
महलों में सब लोग कहां खुश रहते हैं
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मूल गीतकार…. डॉ.नरेश कुमार “सागर”