महर्षि मेंहीं और महात्मा बुद्ध
महर्षि मेंहीं और महात्मा बुद्ध : एक तुलनात्मक विवेचन !
हिन्दू राजकुमार सिद्धार्थ के कालांतर में गौतम बुद्ध और फिर महात्मा बुद्ध और अंततः भगवान बुद्ध हो निर्वाण हो जाना… 2,561 वर्ष पहले किनको पता था कि भारत के बिहार (यह नाम बौद्ध विहार के कारण है) के ‘गया’ नामक हिन्दू के महानतम ‘धाम’ में एक राजा का संत बन जाना, क्योंकि हिन्दू भी इस भगवान को भगवान विष्णु के 9 वें अवतार के रूप में मानते हैं, न कि अलग पंथ के रूप में !
यही कारण है, भारत में बौद्ध धर्मावलंबियों की संख्या कम है । कनफ्यूशियस के चीन ने इसे राजधर्म के रूप में अपनाये हुए हैं, किन्तु उनकी विस्तारवादी नीति (जो दूसरे की जमीन को जबरिया अपना कह रहे हैं) से स्पष्ट है कि चीन बुद्धत्व के मार्ग में ही सबसे बड़े रोड़े हैं । उनकी कथनी और करनी -दोनों ही स्थितियाँ दूसरे की बहू-बेटी पर नज़र गड़ाए जैसे हैं।
वैशाख पूर्णिमा को सिद्धार्थ का जन्म, फिर इसी दिन गया में बुद्ध बन जाना तो एकसाथ बुद्ध पूर्णिमा सहित बौद्ध गया (बोधगया) नामकरण को अमरत्व प्रदान करता है, इसे सहित पटना जंक्शन के समीप बुद्ध करुणा पार्क तो जाइये, कम से कम एक बार ! मैंने दोनों स्थल सैंकड़ों बार देखा है ।
… और हाँ, वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को महर्षि मेंहीं की जयंती मनाई जाती है । बुद्ध जन्म लेते ही 7 कदम चले थे, तो मेंहीं के सिर पर जन्मकाल से ही 7 जटाएं थीं । दोनों को बिहार में ज्ञान प्राप्ति, दोनों का जन्म ननिहाल में । एकतरफ ‘धम्मपद’ तो दूजे तरफ ‘सत्संग-योग’ । सिद्धार्थ तो शादी कर लिए थे, किन्तु रामानुग्रह उर्फ मेंहीं अविवाहित थे ! दोनों में कई तुलनाएं प्रतिबद्धता के साथ जुड़ी हैं ।
बौद्ध कोई धर्म नहीं है, बल्कि हिन्दू धर्म की विसंगतियाँ को हटाकर एक निचोड़न है । एक महानतम विचार, जो ‘बुद्धम शरणम गच्छामि’ में जाकर ही खत्म नहीं होती ! क्यों न हम धर्म और जाति से परे की सोचे ?
नास्तिकता भी तो एक विचार है… जोकि किसी धर्म की दकियानूसी पर जीत है… जहाँ तक श्रद्धा और आस्था की बात है, तो जैसे हम माँ को माँ कहने से, पिता को पिता कहने से, सूर्य को सूर्य कहने से रोक नहीं सकते, बिल्कुल ऐसे ही तो धर्म के प्रति नीरव श्रद्धा और आस्था भर रहने चाहिए, अन्यथा गणेश को दूध पिलाने की दकियानूसी भर रह जायेगी । बौद्ध धर्म तब इस मायने में उन्नत है ।