” महक संदली “
नवगीत
तन को छूकर दहकी ,
महक संदली !!
स्पर्श हुआ जो तेरा
लिपट गये हम !
खुद में ही लगता है ,
सिमट गये हम !
कैसे नज़र मिलाएं ,
मची खलबली !!
धड़कन की धक धक को ,
भाँप गये हम !
बिजली कौंधी ऐसी ,
काँप गये हम !
अधरों की लरजन भी ,
बन गयी छली !!
आँचल छूटा कर से ,
ढलित सा लगा !
जियरा भी बस में ना ,
चलित सा लगा !
लाज निगोड़ी बैरन ,
ना बनी बली !!
थिरक गई जब लाली ,
पुलक गात पर !
मुंदे रह गये नयन ,
मदिर बात पर !
हैं गुलाब महके से,
हवा न संभली !!
तटबंधों पर जमकर ,
चुहल हो गयी !
अनचाही से कैसी ,
पहल हो गयी !
हटा वक्त का पहरा ,
अपनी न चली !!
जहाँ भावना पलती ,
मन मगन लगे !
रस भीनी इच्छाऐं ,
हैं मगर ठगे !
नहीं रहा कुछ संचित ,
यादें पगली !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )