“महंगाई”
“महंगाई”
महंगाई का दामन पकड़े भूख सिसक के रोती हैं।
चांद का टुकड़ा रोटी है, दाल का दाना मोती है।
बनिए का पर्चा पर्वत से ज्यादा भारी लगता है।
वह गृहस्थी का मेरी मां ना जाने कैसे ढोती है।
जीवन के नभ तम छा जाता महंगाई के मौसम में।
सूरत जैसी एक अठन्नी बटुए में खोटी है।
इस साजिश में और है शामिल यह कह देना ठीक नहीं।
महंगाई का बीज अकेले किस्मत बोती है।
सर पर रख आशा का छप्पर आंखों में उम्मीद जगाता है।
कम होगी महंगाई कह कर दिल्ली चैन से सोती है।
उनकी जादू भरे आंकड़े मत जाना नजदीक कभी, चेहरे पर निर्धन के हर चीज की कीमत होती हैं।
✍️श्लोक”उमंग”✍️