महँगाई: (आधार छंद)
कैसे बोलूँ बात, नयन तो रोते मेरे।
देते सारे दर्द, अब महंगाई तेरे।
कंगाली की मार,सह रही धात्री सारी।
तूने ही तो सब, बटुए की शोभा मारी।
लेके ढोते कर्ज, कर रहे पैसे पैसे।
सूना लागे द्वार, अब भला जीयें कैसे।
घेरे चिंता घोर, विकल होती है छाती।
रिश्ते होते दूर, जब कमी होती थाती।
खोता सारा मान, घुटन में बीते रैना।
रोजी हाहाकार, अब देती ना चैना।
देती पीड़ा खूब, रहम है क्यों ना आयी।
सूखे गोरे गाल, जगत को तू ना भायी।
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अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.