मसीहा
_लघुकथा _
मसीहा
*अनिल शूर आज़ाद
साहित्य-जगत में उनका बड़ा नाम है। विशेषतया दलितों-श्रमिकों के तो वे ‘मसीहा’ ही माने जाते हैं। हो भी क्यू न, आख़िर दर्जन-भर पुस्तकें इन्ही पर तो लिखीं हैं, कोई मजाक थोड़े ही है।
“दवा के अभाव में मेघा की मां चल बसी..इस मौत का जिम्मेदार मेघा ने, सरमायेदारों को माना..” अपने वातानुकूलित कक्ष में बैठकर वे ‘दीन-दुखियों’ पर कलम चला रहे हैं।
एकाएक बाहर..शोर उठा है। ‘डिस्टर्ब होकर’ गुस्से में भरे वे खिड़की खोलते हैं..भारी भीड़ लगी है, सामने बन रही बहुमंजिला इमारत में फिर कोई मज़दूर दुर्घटनाग्रस्त हो गया लगता है!
“अजी छोड़ो.. जान बचने का तो सवाल ही नही..” खिड़की के निकट से गुजरते दो राहगीर..इसी हादसे पर चर्चा कर रहे हैं।
“डर्टी पीपल!” घृणा से मुंह बनाते तथा बुदबुदाते वे..वापिस अपनी आराम-कुर्सी में आ धसें हैं। अच्छा खासा मूड ख़राब हो गया!
हाथ बढ़ाकर उन्होंने अपना इम्पोर्टेड स्टीरियो ‘ऑन’ कर दिया है..तेज पाश्चात्य स्वर-लहरी पर वे ताल दे रहे हैं..वे अब ख़ुश हैं..लिखने का मूड..फिर बनने लगा है!!