#मशहूर हैं जहाँ में
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● प्रस्तुत रचना ४-३-१९७३ को लिखी गई थी। ●
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★ #मशहूर हैं जहां में ★
उठा है शौके – परस्तिश वो ज़रा बाखबर रहें
लाइलाज है जुनूँ ये मुतमईन चारागर रहें
किब्ला-ओ-काबा-ए इश्क कितना हो पुरख़्तर
संवारेंगे ज़ुल्फ उलझी ये उनसे जा कहें
मशरिक से उरूज़ होगा हर सूरत में आफ़ताब
चंद टुकड़े ये बादलों के कुछ भी किया करें
मिट जाएंगी कट जाएंगी कुल साज़िशे – ज़माना
कुव्वते – हुस्नो – इश्क अगर मिल कर अहद करें
हम हैं मता-ए-आख़िरे-अफ़साना-ए-ज़िंदगानी
मशहूर हैं जहाँ में चाहे जिधर चाहें
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२