मर्यादा
मर्यादा
तुम कुल के दीपक हो
मैं दो कुलों की मर्यादा।
मुक्त उच्छ्वास दीपक को
पिंजरबद्ध रहती मर्यादा।
हरपल पंख कतरे जाते
हरपग मेरे खतरे आते
नीति अनीति का मुझे बोध
फिर मेरे उड़ान पर क्यूँ रोध?
परायेपन का दंश औ ताप
चुपचाप है सहती मर्यादा।
उन्मुक्त मुझे भी उड़ने दो
है आज ये कहती मर्यादा।
-©नवल किशोर सिंह