मर्म
मोहल्ले के सारे पुरुष इसी बात से दुखी थे कि सवेरे – सवेरे से रतनी काकी के चबूतरे पर औरतें इकट्ठा हो अपनी पंचायत शुरू कर देती थीं जिसकी गहमा गहमी लगभग रात आठ नौ बजे तक रहती। पंचायत की मुखिया होती थीं “रतनी काकी “। काकी महिलाओं की हर घरेलू समस्या, दुखों का समाधान किया करतीं। मोहल्ले की औरतों की आर्थिक मदद से लेकर बच्चों की हर छोटी- बड़ी बीमारी का घरेलू व देशी इलाज
काकी के बाएं हाथ का खेल था। बच्चों पर उनके नुस्खे खूब असर करते थे। सारे बच्चों पर लाड़ बरसता था उनका। न हो तो खुद की वैन में बीमार बच्चे को मां के साथ हास्पीटल ले जाती। पुरूष सारी दुनियादारी से फ्री रहते थे।
मोहल्ले के कुछ पुरुष मन में काकी से ईर्ष्या रखते हुए अपनी पत्नियों से नाराज होकर यहाँ तक कहते कि” कहो तो तुम्हारा रात का बिछौना भी वहीं लगवा दें।” महिलाओं में इतनी लोकप्रिय थी रतनी काकी की पंचायत।
कुछ भी हो हर आती जाती महिला काकी से राम-राम करना न भूलती।
“उठो जी। सुनते हो। टोनू बुखार से तप रहा है। हास्पीटल ले जाना पडे़गा।”
“उफ क्या मुसीबत है। सोने भी नहीं देती हो। जाओ न ले जाओ अपनी रतनी काकी की वैन में उनके सा……..???”
“क्या कह रहे हो? अभी परसों ही तो काकी का स्वर्गवास…..” संगीता का गला रुंध गया।
आज अमित को मोहल्ले के पुरूषों के एक प्रतिनिधि के रूप में रतनी काकी की पंचायत का मर्म समझ में आया। ”
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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