मरीचिका
गर्म हवा की हूँ लहर, जिसमें बढ़ती प्यास।
केवल दरिया रेत की, मरीचिका आभास।।
बनकर मायावी छले, मरीचिका रत्नार।
मन मृग-सा आतुर फिरे, पछताता हर बार।।
भरा हुआ है वेदना, मरीचिका के राह।
पागल-सा मानव फिरे, मिला नहीं मन चाह।।
परत खार की रेत पर, दिखती भ्रम का ताल।
प्यास बुझाती ही नहीं, मरीचिका जंजाल।।
जज्बातों की रेत पर पड़ी उम्र की धूप।
मरीचिकाओं से घिरा, घड़ियाँ बड़ी कुरूप।।
जला पतंगा दीप पर, खोया अपना प्राण।
भ्रांति ग्रस्त मन ने किया, मरीचिका निर्माण।।
तेज धूप में चल रहा, उम्मीदों के साथ।
मरीचिका के ही तरह, लग जाये कुछ हाथ।।
रंग-रूप दिखता चटख, मरीचिका के पास।
हुआ तृप्त कोई नहीं, ऐसी इसकी प्यास।।
माया, ममता, मोह में, फसा रहा इंसान।
मरीचिका भटका रही, जीवन रेगिस्तान।।
मरीचिका प्रिय प्रेम की, केवल भ्रम का अंश।
सिर्फ मौत मिलती यहाँ, सहना पड़ता दंश।।
स्वप्न जाल भ्रम का सुखद, मरीचिका की शान।
टूटा मिथ्या भ्रम सभी, हुआ सत्य का ज्ञान।।
कर्म विमुख चलते रहे, नहीं राह का ज्ञान।
बना दिया है जिन्दगी, मरीचिका श्मशान।।
मरीचिका मिथ्या रही, मन में पाले भांत।
मन केवल अभिभूत थी, हृदय नहीं था शांत।।
मरीचिका साहस भरे, ले जाता उस पार।
वह दिखलाता है हमें, सपनों का संसार।।
मरीचिका भ्रम है मगर, होती है अनमोल।
ये समझाता है हमें, इस जीवन का मोल।।
भ्रम में पड़ कर जो किया, खुद को ही बर्बाद
पास शेष बचता नहीं, रह जाती फरियाद।।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली