मरीचिका
छलना तुम छाया सी
या शापग्रस्त कोई अप्सरा सी !
मरीचिका मेरे जीवन की
फिर भी दिल की धड़कन ही सी !!
उठती गिरती लहरो सी
या बादल के एक टुकड़े सी !
दूर बहुत दूर हो तुम
पर लगती हो अपनी ही सी !!
सिन्दूरी गुलमोहर के रंग से
सुलगी है फिर चिन्गारी सी !
सुरमई साँझ के झुटपुटे में
मिल जाओ तुम अजनबी ही सी !!
यादों के झरोखे से जब तब
झाँकती रहती हो तुम बहारो सी !
कैसे कह दू मिट जाती है यादे
पानी पे पड़ी लकीर सी !!