मन है कि मानता नहीं ( व्यंग्य )
मिस्टर मानूराम भी अपनी तरह के अकेले शख्स हैं । लाकडाउन चल रहा है इसलिए वह अपने दोस्तों से मिलने भी नहीं जा सकते और न ही उनके दोस्त मिलने आ सकते हैं । बड़ी मुश्किल जिंदगी लग रही है । बहुत कश्मकश है। बेचारे हरदम घूमने वाले कभी भी
घर में न टिकने वाले , इस लाकडाउन ने उनकी दिनचर्या ही ठप्प कर दी । बड़ी कठिनाई हो रही है एडजस्ट करने में । बड़ी याद आती है चौक चौराहों की दोस्त यारों की । पर क्या करें ,अब तो दिन भर टी वी है, बीबी है और बच्चे हैं । बेचारे मानूराम बाहर निकलने के लिए कितना भी मना करो कभी न मानने वाले अब
बीबी बच्चों में मस्त होने की कोशिश करने में लगे हैं । सोचा था 14 अप्रैल के बाद कुछ राहत मिलेगी दोस्त यारों से मिलेंगे चौक चौराहों की ख़ाक छानेंगे पर उसके बीतने से पहले ही दूसरा लाकडाउन आ गया । बेचारे बड़ी हिम्मत करके घर में ठहरे हैं ।सब कैद सा लग रहा है पर क्या किया जाए । एक दिन जब रहा नहीं गया तो सोचा चलो थोड़ी सी तफरीह करने में क्या हर्ज है ।
शर्ट पैंट पहनी और दुपहिया लेकर निकलने वाले ही थे कि बच्चा बोल उठा – पापा कहां चले ,बाहर पुलिऽऽस , डंडा ऽऽ । बेचारे मानूराम आखिर मान ही गए । पैंट शर्ट उतारी और बच्चों संग कैरम खेलने बैठ गए ।
अशोक सोनी ।