मन ही मन में तुम, मुस्कुरा रही हो…
मन ही मन में तुम, मुस्कुरा रही हो,
ऐसा, लग रहा है, कुछ हमसे छुपा रही हो.
मन ही मन में तुम, मुस्कुरा रही हो…
खामोशियों के सायों में हलचल सी हो रही है,
कष्टों की स्याह बदली, हौले से हट रही है,
आगोश में मैं ले लूँ, उम्मीद कर रही हो,
मन ही मन में तुम, मुस्कुरा रही हो …
मैं बनके प्रेम भंवरा गुन-गुनगुना रहा हूँ,
तुम रूप हो कली का, पा के इतरा रहा हूँ,
तुम भी तो प्रेम रस में, रसमग्न हो रही हो,
मन ही मन में तुम, मुस्कुरा रही हो…
क्या चाहते हैं अपनी, तुम खूब जानती हो,
मानस में जो भी छवि हैं, सब पहचानती हो,
तुमको भी कुछ है कहना, कहने से झिझक रही हो,
मन ही मन में तुम, मुस्कुरा रही हो …
अब तुमसे क्या छुपाऊॅ, तुम पर है सब निछावर,
तुम ही तो सबसे सुन्दर, नहीं दूसरा धरा पर,
सांसों का स्रोत बनकर, तन – मन में बस रही हो,
मन ही मन में तुम, मुस्कुरा रही हो…
✍ सुनील सुमन