मन ही मन में कोई खेल रहा
मन ही मन में कोई खेल रहा,
मृगनयनो से है छेड़ रहा।
नित नये सपनों में
हमको है कोई ढकेल रहा।
मन ही मन में कोई खेल रहा,
मृगनयनो से है छेड़ रहा।
है गोरा बदन,कमलो सा नयन,
घनघोर घटा केशों का गहन,
लहराता हुआ केशों का जतन,
अधरों पर है कोयल सा वचन,
मुखमंडल पर काला मोती,
जैसे कोई अनमोल रतन।
सुन आहट उसकी आने की
है धक-धक धडकन धड़क रहा।
मन ही मन में कोई खेल रहा,
मृगनयनो से है छेड़ रहा।
निचीं निगाहें सादा वसन,
मोरनी जैसी उसकी चलन,
नजरों पर है अधरों का कथन,
चंचल मन ना कोई जलन,
तरूणाई उसकी दिखती है,
जैसे सज-धज कर है उपवन।
देख अंगडाई उसकी तरुणाई की
है तन-मन अपना हरष रहा।
मन ही मन में कोई खेल रहा,
मृगनयनो से है छेड़ रहा।
आती है जब याद उसकी,
तन-मन पुलकित होता है।
शरद, शिशिर हो या हेमंत,
ग्रिष्म भी वसंत सा होता है।
हर रूप में उसके रूप का,
दीदार हर वक्त होता है।
देख दिल की ऐसी हालत को
है मन भी पल-पल बहक रहा।
मन ही मन में कोई खेल रहा,
मृगनयनो से है छेड़ रहा।
नित नये सपनों में
हमको है कोई ढकेल रहा।
मन ही मन में कोई खेल रहा,
मृगनयनो से है छेड़ रहा।
कुन्दन सिंह बिहारी (मा०शिक्षक)
उ०मा०वि०अकाशी,सासाराम