मन से मन का दीप जलाओ
मन से मन का दीप जलाओ
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मन से मन का दीप जलाओ
जगमग – जगमग दीवाली मनाओ
धनियों के घर वन्दरबार सजती
निर्धन के घर लक्ष्मी न ठहरती
मन से मन का दीप जलाओ
घृणा – द्वेष को मिल दूर भगाओ
घर घर जगमग दीप जलते है
नफरत के तम फिर भी न छँटते है
जगमग जगमग मनती दीवाली
गरीबों की दिखती है चौखट खाली
खूब धूम धड़काके पटाखे चटखते
आकाश में जा ऊपर राकेट फूटते
काहे की कैसी मन पाये दीवाली
अंटी हो जिसकी पैसे से खाली
गरीब की कैसे मनेगी दीवाली
खाने को जब हो कवल रोटी खाली
दीप अपनी बोली खुद लगाते है
गरीबी से हमेशा दूर भाग जाते
अमीरों की दहलीज सजाते है
फिर कैसे मना पाये गरीब दीवाली
दीपक भी जा बैठे है बहुमंजिलों पर
वहीं झिलमिलाती है रोशनियाँ
पटाखे पहचानने लगे है धनवानों को
वही फूटा करती आतिशबाजियाँ
यदि एक निर्धन का भर दे जो पेट
सबसे अच्छी मनती उसकी दीवाली
हजारों दीप जगमगा जायेंगे जग में
भूखे नंगों को यदि रोटी वस्त्र मिलेंगे
दुआओं से सारे जहाँ को महकायेंगे
आत्मा को नव आलोक से भर देगें
फुटपाथों पर पड़े रोज ही सड़ते है
सजाते जिन्दगी की वलियाँ रोज है
कोन सा दीप हो जाये गुम न पता
दिन होने पर सोच विवश हो जाते
डॉ मधु त्रिवेदी