मन मेरे तू, सावन-सा बन…
मन मेरे तू सावन-सा बन !
मृदुल मधुर भावों से अपने,
कर दे जग को पावन-पावन।
मन मेरे तू, सावन-सा बन !
मिट जाए चाहे तेरी हस्ती।
हरी-भरी हो जग की बस्ती।
खिल उठें घर-उपवन-कानन।
मन मेरे तू, सावन-सा बन !
तपते आतप से कितने प्राणी !
उन्हें सुना राहत की वाणी।
भर जाए खुशी से दामन-दामन,
मन मेरे तू, सावन-सा बन !
जो पल-पल तेरी राह निहारें।
मिल तू उनसे बाँह पसारे।
मुरझे न कोई आस भरा मन।
मन मेरे तू, सावन-सा बन !
छाले पड़े जिनके पाँव में।
तेरे आँचल की शीत छाँव में,
मिले उन्हें माँ-सा अपनापन।
मन मेरे तू, सावन-सा बन !
स्नेह कण तूने किये जो संचित।
रख मत उनसे जग को वंचित।
बरसा उन्हें दे आँगन-आँगन।
मन मेरे तू, सावन-सा बन !
~ डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ0प्र0 )