मन में राम बगल में खंजर लगता है।
गज़ल- फ़िल से हासिल
22…..22…..22….22…..22…..2
उसको जब भी देखूँ तो डर लगता है।
मन में राम बगल में खंजर लगता है।
हुस्ने मतला-
कैसा भूखे नंगे रहकर लगता है।
मुफलिस होकर जीना दूबर लगता है।
ख़्वाब में होकर ख़्वाब न आते महलों के,
फुटपाथों पर ही अपना घर लगता है।
आफ़िस जाना बंद, काम घर से होता,
अब तो अपना घर ही दफ़्तर लगता है।
रँगे वस्त्र कंठी धारण माला जपना,
ईश्वर पाने का आडंबर लगता है।
इक अनजाना राही भी गर साथ चले,
जीवन पथ का सच्चा रहबर लगता है।
प्रेमी बनकर प्रेम खोजते फिरते हैं,
प्रेम अगर है इंसां ईश्वर लगता है।
……✍️ प्रेमी