मन-मन को लुभा रही हो
मन-मन को लुभा रही हो,किस देश से आई हो।
भेष न्या हैं या उसी ,भेष में आई हों।।
कितनी मिठी-कितनी सुन्दर, गीत तुम सुनाती हों।
अपने रंगों से परे होकर,अपना पहचान बनाई हों।।
कू-कू करके डाली-डाली,किसको रिझाने आई हों।
किसकी है इंतजार तुम्हें, आखिर किसे मनाने आई हों।।
इतने दिन कहां थी तुम, किसकी याद तुम्हे यहां खिंच के लाई है।
कौन हैं रसिया तेरा,जो मेरे गली में कू-कू करतें आई हों।।
अपने धुन में गाती हो, आमों के पेड़ों पे चढ़कर आखिर किसकी संदेशा सुनाती हों।
जब मैं करता संग तेरे कू-कू ,फिर क्यों चिढ सा तुम जाती हों।।
जब लगता हैं आमों में मोजर तुम क्यों मौनव्रत तोड़ देती हों।
कहीं तुम आमों के रखवाली करने तो नहीं आतीं हों।।
पत्ते-पत्ते -डाली-डाली, हर बाग-बगीचे को महकाती हों।
अपने स्वर के सुरों से सबको मधुपान करातीं हों।।
हवाओं के संग खेलती हों, हरे-हरे पत्तों में छुपती और निकलती हों।
कहीं चांद तो नहीं हों,जो हर दिल को लुभाती हों।।
कोयल हैं नाम तुम्हारा, रंगों से तुम काली हों
मधूरभाषी हों, वसंत बहार की केवल तुम्हीं एक रानी हों।।
नीतू साह(हुसेना बंगरा)सिवान-बिहार