“मन, भी अनन्त है,ईश्वर जैसा”
कगार पर,
खड़ा हुआ ज्ञान,
अन्तर्द्वन्द से मचलती,
वृत्ति को स्पर्श,
न कर पाने से,
संकोच की परिधि में,
सामंजस्य की नित,
नई प्रभाती से,
विरोध की वृष्टि,
भी सहकर उद्वेग से,
मंजूषा को रचता,
नई नवीन रचनाओं,
को उकेरता देखकर,
कि कोई तो तुम्हारे जैसा होगा,
इस जगत में,
इतना निर्मोह तो,
उस पंक्षी में न हो,
जो सूखे डूँठ पर,
भी आवास निर्मित कर,
इस आशा में कि,
यह हरित रंग से,
जगमगायेगा कभी,
क्या इतना भी,
सन्तोष नहीं तुम्हारे
अन्तः करण में,
कभी भी अपने,
विचारों की वीरता,
सजीवता, तत्परता,
प्रसन्नता से,
हारता नहीं,
क्यों कि मन,
भी अनन्त है,
उस ईश्वर जैसा।
©अभिषेक पाराशर