*** मन बावरा है….! ***
“” मन में, कुछ आस है…
मन में न जाने क्यों…?
कुछ और अधिक प्यास है…!
हलचल सी झलक है कुछ…
मेरे मन की चाह में…!
आहट सी है कुछ…
कर्ण पट राह में…!
शोर सा है कुछ…
मन हृदय आंगन में…!
कभी झिलमिलाती तस्वीरें कुछ…
नजर आती है अनजानी राह में…!
उकेरने की चाह में…
प्रतिबिम्ब बनाती मन-दर्पण की दीवार में…!
एक अमिट आकार की अथक प्रयास…
अनेक रंग भरने की अगाध ललक कयास…!
बिन जाने कुछ…
बिन बूझे, कुछ उलझे से…
चल पड़ा अनजाने राह में…!! “”
“” शायद अनजान राही है…
ये मन बावरा…!
न जाने फिर भी क्यों…?
चल पड़ा मतवाला बन…!
क्या कुछ सोच…
पांव में लेकर घाव के मोच…
ना समझ बावरा मन…!
पूछना चाहा..
और जानना भी चाहा…!
चलते हुए अनेक राहगीर से…
और अपनी तनवीर तकदीर से…!
फिर क्या…?
कुछ लोगों ने पागल समझा…
कुछ ने अनाड़ी…!
और कुछ लोगों ने समझ लिया गंवार…!
मजे की बात यह है कि…
मैंने जिन्हें समझ रखा था…
फुटबॉल, हाॅकी, टेनिस और क्रिकेट खिलाड़ी…!
पर… वे सब भी थे…
एक अनजान रथ में सवार…!
लेकिन…
क्या करूँ दोस्तों…!
मन है बावरा कुछ…
लकीर का फकीर कुछ…!
खिलाड़ी बन हर खेल में…
लेकर हाथ में, कुछ अंजीर..
संभावित हार-जीत की, परिणामी मेल में…!
कोशिश यही है कि…
मैं भी बन जाऊँ, शतरंज की एक वज़ीर..!
मैं भी बन जाऊँ, शतरंज की एक वज़ीर…!! “”
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