मन दर्पण
आज फिर से उठ के बन्दे मन के दर्पण खोल
कहीं गूँज रहे है फिर से अलबेले से बोल
भावनाओं के दरिया में न बह नई राह बना ले
विचारों के प्रवाह को अपनी चाह बना ले
शंशय में उलझी माला की गुत्थी फिर सुलझा
अकूलाहट भेद रही मन की दुविधा को सुलझा
अन्तर्मन में जगी ज्योति को जोड़ ले
सकल मनोरथ नवज्योति को मोड़ ले
बचपन की धूमिल यादों को ताज़ा कर ले
हर गम को छोड़ खुशी से साझा कर ले
जीवन की राह में बुलंदियों से हर कड़ी जोड़ ले
निराशा त्याग आशा की ओर हर घडी मोड़ ले